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* प्राकृत व्याकरण *
विलपे
- बडबडौ ॥ ४-१४८ ॥
विल पेर्भुख- - वडवड इत्यादेशौ वा भवतः ॥ खइ । वडबड | बिलवद्द ||
अर्थ :- 'विलाप करना' अर्थक संस्कृत धातु 'वि + लप' के स्थान पर प्राकृत भाषा से 'ख और ases' ऐसे दो (धातु) रूपों की यादेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'विलक्ष' भी होगा। जैसेfreपति = (१) शंख, (१) वडवड और (2) विठवड़ = वह विलाप करता है, वह जोर जोर से रुदन करती है ।। ४-१४८ ॥
लिपो लिम्पः ॥ ४-१४६ ॥
लिम्पते लिम्य इत्यादेशो भवति || लिम्पइ ||
गुप्येविर - ड ॥ ४- १५० ।।
गुप्यतेतावादेशौ वा मत्रतः || विरह | गुड | पक्षे । गुप्पह ||
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अर्थ :- 'लीपना, लेप करना अर्थ संस्कृत धातु 'लिए ' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'लिम्प ( धातु ) रूप की आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- लिम्पति = लिम्पह = वह लीपती है, वह लेप करता है || ४- १४६ ।।
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कपो हो ःि ॥ ४- १५१ ॥
कृपे व इत्यादेशो व्यन्तो भवति ।। अवहावे | कृपां करोतीत्यर्थः ॥
अर्थः- ' पूर्वक प्राकृत भाषा में अथवा पते = अवहावे
अर्थः- ' व्याकुल होना' अर्थक संस्कृत धातु 'गुप्य के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से' विर' और ' ण्ड ' ऐसे दो ( धातु } रूपों को आदेश प्राप्ति होती हैं। वैकल्पिक पक्ष होने से 'गुप्प ' भी होता है। जैसे:- गृप्यति विरइ, गड अथवा गुप्पड़ = वह व्याकुल होता है, वह घबड़ाती है ।
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॥। ४- ५० :
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'कृपा करना' अर्थ संस्कृत धातु ऋप् के स्थान पर प्रेरणार्थक प्रत्यय णिच वह + आवे ' अहावे रूप की आदेश आमि होतो है । जैसे:- कृपां करोति वह कृपा करता है, वह दया करती है ।। ४- १५१ ।।
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प्रदीपेस्ते अव - सन्दुम-सन्धुका भुता ॥ ४--१५२ ।।