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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * mroommonworrormersorrowomewwwmorrowroornstarsworrmwesons.poor (३) पद्धमा, (४) अंगुम और (५) अहिरेम । वैकल्पिक पक्ष होने से पूर' मो नाता है। उक्त छ है ही मातुओं के उदाहरण का लो इस प्रकार हैं:--परयति = (अरबाडइ, (२) अग्यवाह, (३) उपधुमाइ (४) अंगुमइ, (५) अहिरेमड़ और (6) पूर= वह पूर्ति करता है अथवा वह पूग करता है ॥४-१६६ ॥
वरस्तुवर-जअडौ ।। ४-१७० ॥ त्वरतरेताचादेशी भवतः ॥ तुवरइ । जअडइ । तुवरन्तो । जडन्ती ।
अर्थ:-स्वरा करना, साधना करना श्रर्थक संस्कृत-धातु 'वर' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'सुबर और जअह' ऐसे दो धातु-रूपों को आदेश प्राप्ति होता है । इन दोनों धातु-रूपों के बाहरण कम से इस प्रकार है:--(परयति अथवा) त्वरते-तुवरइ अथवा जडइ = वह शीघ्रना करता है, वह जल्दा करता है। इसी धातु का वर्तमान कान्त का उदाहरण इस प्रकार है:--स्वरन् = तुचरन्तो अथवा जअडन्ती-शीघ्रता करता हुआ, उतावल करता था ।। ४-१५० ।।
__ त्यादिशत्रोस्तूरः ॥४-१७१ ॥ घरतेस्त्यादौ शतरि च तूर इत्यादेशो भवति ॥ तूरइ । तुरन्तो ।।
अर्थ:-'त्वरा करना, शीघ्रता करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'स्वर' के आगे काल बोधक प्रत्यय 'ति =इ' श्रादि होने पर अथवा वर्तमान कृदन्त बोधक प्रत्यय 'शत - अत:न्त अथवा मागा' होने पर 'स्वर' का प्राकृत रूपान्तर आदेश रूप से 'तूर' होता है । जैसः- स्वरति अथवा त्वरते-तरमवह जल्दी करता है. वह शीघ्रता करता है। परन् - नुरन्तो (अथवा तूरमाणी) जल्दी करता हुआ। यो 'तूर' के अन्य रूपों की भी स्वयमेव साधना कर लेना चाहिये ॥४-१७१ ॥
तुरो त्यादौ ॥ ४-१७२ ॥ त्वरो त्यादौ तुर आदेशो भवति ।। तुरिओ । तुरन्ती ।।
अर्थ:-'शीघ्रता करना' थर्थक संस्कृत धातु 'वर' के स्थान पर प्राकृत-भषा में 'ति-इ' आदि काल बोवक प्रत्यय तथा कृदन्त श्रादि बोधक प्रत्यय आगे रहने पर 'तुर' श्रादेश की प्राप्ति होती है । जैसे:-वरितः= तुरिओ = शोव्रता किय! हुआ । त्वरन्नुरन्तोशीघ्रता करता हु मा । यो अन्य रूपों की भी स्वयमेव कल्पना कर लेना चाहिये ॥४-१७२।।
क्षरः खिर-झर-पझ्झर-पच्चड-णिच्चल-णिटुआः ॥ ४-१७३ ॥