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* प्राकृत व्याकरण *
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हो जाती है । यो प्राकृत रूपान्तर में 'रुद्र' का रोत भुत्र का मोत्' और 'मुच् का मातृ' हो जाता है। इनके उदाहरण क्रम से इन प्रकार है: - (१) रुवि =रोत्तूण = से करके, रुदन करके, (२) रोदितुम् = सेतु सेने के 'लये, रुदन करने के लिये और (P) रुदितव्यम् रात-रोना चाहिये अथवा ने के योग्य है । (४) वा=भोगखा करके अथवा भोजन करके, [५] भोक्तुम - भोनुं खाने के लिये अथवा भोजन करने के लिये और (६) भोक्तव्यम् मांतव्वं = खाना चाहिये अथवा खाना के योग्य हैं । (७) मुषा - भोत्तू अथवा त्याग करने के लिये और (९) मोक्तव्यम् = मोत्तव्वं के योग्य है ।। ४ - २१२ ।।
=
छोड़ करके त्याग करके,
=
(2) मोक्तुम
=
[ 804 ]
छोड़ना चाहिये
मोतुं छाड़ने के लिये
=
श्रयवा छोड़ने
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दृशस्तेन ः || ४-२१३ ।
शोन्त्यस्य तकारेण सह द्विरुकष्टकारी भवति || दया । दङ्कं । द ||
"
अर्थ :- संबंधार्थ कृदन्न, हेश्वर्थ कृदम्स और 'चाहिये' अर्थक 'तव्य' प्रत्ययों की संयोजना होने
पर संस्कृत धातु दृश्' के प्राकृत रूपान्तर में 'त' सहित अन्त्यव्य जन के स्थान पर द्विश्व 'ट्ठ' की प्राप्त होती है । जैसे:-ष्ट्र देखकर हम देखने के लिये और दृष्टव्यम् =
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= देखना चाहिये अथवा देखने के योग्य ।। ४-९६ ।।
या कृगो भूत-भविष्यतोश्च ॥ ४-२१४ ॥
गोन्त्यस्य आ इत्यादेशो भवति ॥ भूत-भविष्यत् कालयोश्व कारात् क्त्वा तुम्--. तव्येषु च | काही | अकापत | अकरोत् । चकार वा ॥ काहिह । करिष्यति । कर्ता का || क्त्वा | काउण । तुम्, काउं ॥ तव्य । कार्यव्वं ॥
अर्थ :-- संबंधाथे कृदन्त हेत्वर्थ कृदन्त और 'चाहिये' अर्थक 'तव्य' प्रत्यय लगने पर तथा भूत कालीन तथा भविष्यत् कालीन प्रध्यय लगने पर संस्कृत धातु 'ऋग' = 'कृ' के अन्त्यस्वर 'ऋ' के स्थान पर 'या' स्वर की प्राप्ति होता है। क्लोति से प्राकृत भाषा में रूपान्तरित 'का' धातु के पांचो क्रियापदीय रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार है: - [?] कृत्वा = काऊन = करके, [२] कर्तुम् = फाई करने के लिये, कर्तव्यं काय करना चाहिये अथवा करने के योग्य, अकार्यत् - ( अकरोत अथवा चकार) = काहीअ = उसने किया, करिष्यति ( अथवा कर्ता ) = काहड़ वह करेगा, ( अथवा वह करने वाला है ) | यो 'करने अर्थक प्राकृत धातु 'का' का स्वरू। जानना चाहिये ।। ४-२१४ ।।
गमिष्यमासां छः
४-२१५ ।।