________________
* प्राकृत व्याकरण * の なかできなかなかいいかわからなのかわからないのですが.....
क्षरेते पड आदेशा भवन्ति ॥ खिरइ । करइ । पज्झरह। पचड | णिचलइ । गिटुअइ ॥
अर्थ:-गिरना, गिर पड़ना, टपकना, झरना थर्थक संस्कृत-धातु 'तर' के स्थान पर प्राकृतभाषा में छह धातु रूपों की आदेश प्रामि हातो है । जा कि क्रम से इस प्रकार हैं:-(१) खिर, (२) झर, (३) पझर, (४) एचड, (५) णिचल और (६) रिण टुश्र । इनके उदाहरण कम से इस प्रकार हैं:क्षरति=(१) खिरइ. (२) झरइ. (३) पज्झरह, (४) पच्चडइ, (५)णिवलइ और (5) पिदुदाइ = वह गिर पड़ता है, वह टपकता है अथवा वह झरता है ॥४-१७३ ।।
उच्छल उत्थल्लः॥४-१७४॥ उच्छलतेरुत्थल्ल इत्यादेशो भवति ॥ उत्थलइ ॥
अर्थ:-'पछलना, कूदना' अर्थक संस्कृत-धातु 'उत् + शल-वच्छन्' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'उन्धन' धातु-रूप की आदेश प्रानि होती है । जैसे:-उच्छलति-उत्थलइ-बह उछलता है अथवा वह कूदता है ।। ४-१५४ ।।
विगलेस्थिप्प-णिटुही ॥४-१७५ ।। विगलतेरेतावादेशी वा भवतः थिष्पक्ष । विवहह । विगलई ।।
अर्थः-'गल जाना' अर्थक संस्कृत-धातु 'वि , गल के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'थिप और गिट्टु ऐसे दो धासु-रूपों की श्रादेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'विगल' भी होता है। तीनों धातु रूपों के उदाहरण क्रम से इस प्रकार हैं:-विगलति(१) थिप्पह, (३)णिटुहा. और (३) पिंगलइवह गल जाता है, वह जार्ण-शर्ण हो जाता है ॥४-१७५ ॥
दलि-बल्यो त्रिसट्ट-वस्फौ ॥ ४-१७६ ॥ दले क्लेश्च यथासंख्यं विस वम्फ इत्यादेशों वा भवतः ।। विसह । वम्फइ । पर्छ । दलइ । बसाइ ।।
अर्थः-'फटना, टूटना, टुकड़े-टुकड़े होना' अर्थक संस्कृत-धातु 'दल' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'विसट्ट' धातु-रूप को प्रावेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से 'दल' भी होता है। दोनो धातु-रूपों के उदाहरण क्रम से यों है :- दलात = पिता अथवा दलइ =4 फटता है, वह टूट है अथवा वह टुकई हुकड़े होता है।