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* प्रियादय हिन्दी व्याख्या सहित
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भे तुम्भेहि उपभेडिं उम्देहिं तुम्हेहिं उम्हेहिं भिसा ॥ ३-६५ ।।
युष्मदो मिया सह एते षडादेशा भवन्ति ॥ मे । तुब्मेहिं । भो म्ह-ज्झौ वेति वचनात् तुम्हहिं तुझेहिं उज्महिं उम्हहिं तुम्हहिं उच्येहिं भुतं । एवं चाष्टरूप्यम् ॥
अर्थः-- संस्कृत सर्वनाम शब्द 'युष्मद्' के तृतीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'मिस्' की संयोजना होने पर मूल शब्द और प्रत्यय' दोनों के स्थान पर आवेश प्राप्त संस्कृत रूप युष्मभिः' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से छह रूपों की प्रदेश-प्राप्ति हुआ करती है। वे छह रूप क्रम से इस प्रकार है: - भे तुम्भेदि उज्मेहि, उम्हेहिं तुय्येहिं और उय्यहिं । सूत्र संख्या ३- १०४ के विधान से आदेश पाप्त द्वितीय रूप 'तुडभेहिं' में स्थित 'भ' अंश के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'रूह' और 'फ' को क्रम से और वैकल्पिक रूप से यादेश प्राप्ति हुआ करती है; तदनुसार उक्त छह रूपों के अतिरिक्त दो रूप और इस प्रकार होते हैं:- तुम्हेहिं और तुज्झेहि यों 'युष्माभिः' के स्थान पर प्राकृत में कुल चार रूपों की क्रम से ( एवं वैकल्पिक रूप से ) आदेश प्राप्ति हुआ करती है । उदाहरण इस प्रकार है: - युष्माभिः मुक्तम् भे, (अथवा ) तुम्भेहिं (अथवा ) उम्मेहिं (अथवा ) (थ) तुम्हे (अथवा ) उम्म्हेहिं (अथवा ) तुम्हहिं और (अथवा ) तुम्मेहि भुतं श्रर्थात् तुम सभों द्वारा ( अथवा तुम सभी से ) खाया गया है ।
युष्माभिसंस्कृत तृतीया बहुवचनान्त त्रिलिंगात्मक सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप आठ होते हैं: - से, तुम्सेहिं उज्मेहिं उम्देहि, तुम्हेहिं. उन्हेहिं तुम्हेहिं और ज्केहिं । इनमें से प्रथम छः रूपों में सूत्र-संख्या ३-६५ से सम्पूर्ण संस्कृत रूप 'युष्माभि:' के स्थान पर इन छह रूपों की आदेश-प्राप्ति होकर ये छह रूप में तुम्भेहि, उज्झेहि, उम्हहिं, तुय्येहिं, और उच्येहिं, सिद्ध हो जाते हैं।
शेष दो रूपों में (याने युष्माभिः = तुम्हेहिं और तुमेहिं में ) सूत्र संख्या ३-१०४ से पूर्वोक्त द्वितीय रूप आदेश प्राप्त रूप 'तुमेहिं में स्थित 'म' अंश के स्थान पर 'ह' और 'उ' अंश रूप की प्रदेश-प्राप्ति होकर क्रम से मानवां और आठवां रूप 'तुम्हहिं और तुज्झेहिं' सिद्ध हो जाता है ।
'' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-७७ में की गई है । ३६५ ॥
३-६६ ॥
तइ - तुत्र- तुम - तुह - तुभा ङसौ ॥ युष्मदो सौ पञ्चम्येकवचने परत एते पंचादेशा भवन्ति । उसेस्तु तो दो हि हिन्दी लुको यथाप्राप्तमेव ॥ तइसो | तुवत्तो | तुमत्तो ॥ तुहत्तो । तुग्भत्तो । ब्भो म्हइकौ चेति वचनात् तुम्हलो। तुज्झत्तो ॥ एवं दो दृ हि हिन्तो लुक्ष्वप्युदाहार्यम् | तत्तो इति तु त्वत्त इत्यस्य व लोपे सति ॥