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में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' के स्थान पर 'ज्ञ' प्रत्यय की श्रदेश प्राप्ति होकर लहे और लहिज्जेज सिद्ध
हो जाते हैं ।
* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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'ते' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-६९ में की गई है।
आस्यते संस्कृत का मंक रूप है। इसके प्राकृत रूप अच्छेज अछिज्जेज और अभी होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ४२१५ से मूल संस्कृत धातु 'आम्' में स्थित अन्य व्यञ्जन 'स' के स्थान पर 'छ' की देश-प्राप्ति; २८६ से आदेश प्राप्त व्यञ्जन 'छ' को द्वित्व 'घ' की की प्राप्ति २-६० से प्रात 'छ' में से प्रथम छ' के स्थान पर 'च्' की प्राप्तिः १८४ से मूल धातु 'आम्' में स्थित श्रादि दीर्घ स्वर 'आ' के स्थान पर आगे 'सू' के स्थान पर उपरोक्त रीति से संयुक्त व्यञ्जन छ की प्राप्ति हो जाने से ह्रस्व स्वर 'का' की प्राप्ति होकर प्राकृत में धातु रूप '' की प्राप्ति ५० की वृद्धि से प्राप्त प्राकृत-धातु 'अच्छ' मे भावे प्रयोग अर्थ में संस्कृतीय प्राव्य प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'इन और ईअ' प्रस्थयों की क्रम से प्राप्ति होकर भावे प्रयोग अर्थक-अंग 'अरुद्ध अजि अच्छी की प्राप्ति ४-२३६ से प्रथम रूप अच्छ' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति: ३ ९५६ से प्राप्त प्रथम रूप 'अच्छ' और द्वितीय रूप 'अज्जि' में स्थित अन्त्य स्वर 'छा' के स्थान पर आगे 'ज' प्रत्यय की प्राप्ति होने से 'क' की नित्यमेत्र प्राप्ति; ३ १०७ से प्रथम और द्वितीय भावे प्रयोग अर्थ अंगो में अर्थात् 'अच्छे और अज्जे' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में प्राप्तव्य प्रत्यय '६' के स्थान पर 'ज्ञ' प्रत्यय को आदेश प्राप्त होकर 'अच्छेज तथा अच्छिज्जेज्ज' रूप सिद्ध हो जाते हैं; जबकि तृतीय रूप में भावे प्रयोग अर्थक अंग 'अच्छो' में वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होकर 'अच्छे' रूप भी सिद्ध हो जाता है । ३।३-१६०॥
दृशि - बचेर्डीस दुच्चं ॥३ - १६१॥
शेर्वचैव परस्य क्यस्य स्थाने यथासंख्यं डीस डुच इत्यादेशौ भवतः ॥ अजापवादः ॥ दीसह | बुचइ ||
अर्थ:- दृशू और धातु का जब प्राकृत में कर्मणि मात्रै प्रयोग का बनाना हो तो इन धातुओं के प्राकृत रूपान्तर में कर्म-भावे प्रयोग अर्धक संस्कृतोय प्रातस्य प्रत्यय 'य' के स्थान पर प्राकृत में सूत्र संख्या २०१६० के अनुसार प्राप्तव्य प्रत्यय 'ईस और इज्ज' की प्राप्ति नहीं होती है किन्तु इन कर्मण भावे प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'ईश्र और इज' के स्थान पर क्रम से 'दृश्' वायु में तो 'डीस' प्रत्यय की प्राप्ति होती है और 'वच्' धातु में 'बुध' प्रत्यय की प्राप्ति होती है। इस प्रकार से इन दोनों धातुओं के कर्मणि भावे प्रयोग अर्थ में मूल अंगों का निर्माण होता है। प्राप्त प्रत्यय 'डोस और डुन्छ में स्थित श्रादि 'कार' इत्संज्ञक होने से पूर्वोक्त धातु 'दृश्' में स्थित अन्त्य 'शू' का और 'बच्' में स्थित अन्त्य 'च'