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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
क्ते हूः ॥ ४-६४ ॥ भुवः क्त प्रत्यये इरादेशो भवति ॥ हूअं । अणुहरं । परमं ।।
अर्थ:-कर्मणि भूतकृदन्त प्रत्यय 'क-त' के साथ में 'भू' धातु के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'लू' धातु की श्रादेश-प्राप्ति होती है । जैसे-भूतम् = हू = हुआ । अन्य उपमा पूर्वक भू धातु के उदाहरण इस प्रकार हैं:
(१) अनुसू - अहम : तुम हुआ। (२) प्रभूतम् = पहूअं - बहुत ।। ४-६४ ||
कृगेः कुणः ॥ ४-६५ ॥ कृगः कुण इत्यादेशो वा भवति ॥ कुणइ करइ ।।
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अर्थ:--संस्कृत 'फ-करना' धातु के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'कुण' धातु की आदेश-प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में 'कर' की प्राप्ति भी जानना । जैसे-करोति कुणा अथवा फरइवह करता है ।। ४-६५ ।।
काणेक्षिते पिआरः ॥४-६६ ॥ काणेक्षितविषयस्य कगो णिबार इत्यादेशो वा भवति । णि भारइ । काणेक्षितं करोति ॥
अर्थ:-कानी नजर से देखने अर्थक धातु 'कृके स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'शिवार' की आदेश प्राति होती है। जैसे-काणक्षित करोति - णिभारइ % वह कानी नजर से देखता
निष्टम्भावष्टम्भे णिह-संदाणं ॥ ४-६७ ।। निष्टम्भविपयस्यावष्टम्म विषयस्य च कुगी यथा संख्यं णियह संदाण इत्यादेशौ या भवतः ॥ णिहुइ । निष्टम्भं करोति ! संदाणइ । अवष्टम्भं करोति ॥ अर्थ:--'निश्चेष्ट करना अथवा चेष्टा रहित होना' इस अर्थक संस्कृत-या '
निम पूर्वक क' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकरूप से 'बिदाई' धातु हर को आदेश प्राप्ति होती है। जैसे-निशम्भ करोति =णिनुहड़ यह निश्चेष्ट करता है अथवा वह चेष्टा रहित होता है।