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* प्राकृत व्याकरण 2
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अर्थ:--'तीक्षण करना, तेज करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'तिज' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'श्रोसुक्क' (धातु) रूप को आदेश प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से तिश्र' की भी प्राप्ति होगी । जैसे:-जयति (अथवा तिजति)= ओमका, तेइ = वह तीक्ष्ण करती है, वह तेज करता है । 'ते' धातु से संज्ञा-रूप ते अणं' की प्राप्ति होती है । नपुसक लिंगवाले संज्ञा शब्द 'तेत्रण' का अर्थ 'तेज करना, पैनाना, उत्तजन ऐसा होता है ।।४-१०४ ॥ मृजेरुघुस-लुञ्छ-पुछ-पुस-फुस-पुस-लुह-हुल -रोलाणाः ॥४-१८५॥
मृजेरेते नवादेशा वा भवन्ति ।। उग्घुसइ । लुञ्छइ । पुञ्छइ । पुसइ । फुसइ । लुहइ । हुलइ । रोसाणइ । पक्षे । मज्जइ ।।
अर्थ:-'मार्जन करना, शुम करना' अर्थक संस्कृत-धातु 'मज' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में चिकल्प से नव (धातु.) रूपों का आदेश प्रानि होती है । (३) उग्घुस, (२) लुब्छ, (३) पुञ्छ, (४)पुस. (४) फुस, (६) पुप्त, (७) लुह, ८) हुल और (६) रोमाण । धैकल्पिक पक्ष होने से 'मन' भी होगा। उदाहरण कम से इस प्रकार है:-मार्ट = (१) उग्घुसइ, (२) लुन्छड़, (३) युन्छड़, (४) पुसह, (५) कुसइ, (६) पुरसड़, (७) लुइ, (८) हुलह, () रोसाण पक्षे मजइ - वह मार्जन करता है। वह शुद्ध करता है ।।४-१.५ ।।
भ वेमय-मुसुमूर-मूर-सूर-सूड-विर-पविरञ्ज
करञ्ज-नीरजाः ॥४-१०६ ॥ भञ्झेरते नवादेशाा वा भवन्ति ॥ चेमयइ । मुसुमूरइ । मृरा । सूरइ , बडइ । विरइ । पविरज्जइ । करजइ । नीरजई ! भञ्ज ।।
अर्थ:-'भाँगना-तोड़ना' अर्थक संस्कृत-घातु 'भज' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकरूप से नव धातु-रूपों की श्रादेश प्राप्ति होती है। (१) मय, (२) मुसुमूर, (३) मूर, (५) सूर, (५) सुड, (6) विर, (७) पविरज, ८) करज और (६) नोरज ।
वैकल्पिक पक्ष होने से 'भ'ज' भी होगा । उदाहरण क्रम से यों है:-मनाक = (१) वेमयह (२) मुसुमूरइ, (३) मूरह, (४) सूरइ, (r.) सूड, (६) विरह, (७) पावरउजद () करञ्जद. (1) नीरजड़, और (१०) भजइ = वह माँगता है अथवा वह तोड़ता है ।। ४-१०६ ।।.
अनुबजे: पडिभग्गः ॥४-१०७॥