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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
तनेस्तड - तड्ड - तडूडव - विरल्ला ॥ ४–१३७ ॥ वनेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति ॥ तडइ । तड्डह । नड्डवइ । विरलइ । तणा ।।
अर्थ:-'विस्तार करना, फैलाना 'अर्थक संस्कृत - धातु 'तम के स्थान पर प्राकृत बाषा में चार धातु-रूपों को आदेश-पाति विकल्प से होती है । जो की कम से इस प्रकार है:-(१) तह, (२) तङ्क, (३) तव और (४) विरल्ल । वैकल्पिक पक्ष होने से 'तण' मो होगा । उदाहरण क्रम से यों है:- तनोति = (१) तङइ, (२) तड़, (३) तङ्कवइ, (४) विरल्लइ, I पक्षान्तर में तणाई - वह विरतार करता है अथवा वह फैलाती है ।। ४-१३७ ।।
तृपस्थिप्पः ॥ ४-१३८ ॥ तृप्यते स्थिप्प इत्यादेशो भवति ।। थिप्पइ ।।
अर्थ:-- 'तप्त होना. संतुष्ट होना' अर्थक संस्कृत-धातु ' तूप ' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में 'थिप्प' (अथवा थिप ) आदेश प्राप्ति होती है। जैसे:- तुप्यति = थिप्पड़ (अथवा विं१६ ) = वह तृप्त होती है, वह सन्तुष्ट होता है ।। ४-१३८ ।।
उपसरल्लिमः ॥४-१३६ ॥ उपपूर्वस्य सृपेः कृतगुणस्य अल्लिन इत्यादेशो वा भवति ॥ अलि अह । उबसप्पड ॥
अर्थ:-संस्कृत धातु 'स्मृप्' में स्थित 'ऋकर' स्वर को गुण करके प्राप्त धातु रूप 'सर्प के पूर्व में 'उप' उपसर्ग को संयोजित करने पर उपलब्ध धातु रूप 'उपसप के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'अल्लिम' को आदेश प्राति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से 'साप' भी होगा ! जैसे:-~-उपसर्पतिअहिलअई अयषा उपसप्पइ-वह पास में-ममोप में जाता है ।। ४-१३ ॥ . .
संतपेमङ्ख ॥ ४-१४॥ संतपे मस इत्यादेशो वा भवति ॥ झखइ । पक्षे । संतप्पह ॥
अर्थ:--संतम होना, संताप करना' अर्थक संस्कृत धातु 'सं + तप' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से झन' की आदेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से 'संत' भी होगा । जैसे:-सतपति -झंखर अथवा संतप्पा-वह संतप्त होता है अथवा यह संताप करती है ।। ४-१४० ॥