________________
* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
विभक्ति प्रत्थयों की प्राप्ति होती है। ऐसा होने पर प्राकृत रूपों के साथ में सहायक क्रिया 'अस्' के रूपों का सद्भाव वैकल्पिक रूप से होता है। जैसे:-अभविष्यन् = होन्तो अथवा होमाणो-होता (छत्रा) होता । इस सदाहरण में अपूर्ण हेतु हेतुमद् भूत कालिक क्रियातिपति रूप से प्राप्त रूप 'होन्त तथा होमाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन के अर्थ में मानव्य प्रत्यय 'डो = श्रो' की प्राप्ति बतलाई हुई है। यों प्रारम्य विभक्ति-बाधक प्रत्ययों की प्राप्ति अन्य अपूण हेतु-हेतुमद्भूतकालक कियातिपत्ति के रूपों के लिये मी समझ लेना चाहिये । ग्रंथकार प्रथान्तर से युक्त तात्पर्य को स्पष्ट करने के लिये निम्न प्रकार से वृत्ति में गाथा को उद्धृत करते हैं:--- गाथा:-हरिण-टाणे हरिणत ! अइसि हरिमाहिवं निवेसन्ती ।।
न सइन्सो चित्र तो राह-परिह से जिअन्तस्स || संस्कृतः-हरिण-स्थाने हरिणाङ्क ! यदि हरिणाधिपं न्यवेशयिष्यः ।।
नासहिष्यथा एव तदा राहु परिभयं अस्य जेतुः ।। ( अथवा जयतः ) ।
अर्थः-भरे हरिण को गोद में धारण करने वाला चन्द्रमा ! यदि तू हरिण के स्थान पर हरिणाविपत्ति-सिंह को धारण करने वाला होता तो निश्चय ही तब तू राहु से पराभव को-( तिरस्कार को) सहन करने वाला नहीं होता; क्योंकि राहु सिंह से जीता जाने वाला होने के कारण से ( वह राहु अवश्मयेव. सिंह से डर जाता)।
इस उदाहरण में निवेसन्तो, सहन्तो और जिअन्तस्स' पद अपूर्ण हेतु हेतुमद्-भूतकालिक क्रियातिपत्ति के रूप हैं। इनमें उक्त-अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'त' को प्राप्ति हुई है तथा विभक्ति-बोधक-प्रत्यय 'डो= श्रो' की और 'रस' की सम्बन्धानुसार प्राप्ति होकर पदों का निर्माण हुआ है। इस तरह से यह सिद्धान्त प्रमाणित होता है कि उक्त-अर्थक क्रियातिपत्ति के पदों में विशेष्य के अनुमार अथवा सम्बन्ध के अनुसार विक्ति-बोधक प्रत्ययों की प्रानि होती है। यों ये बियातिपत्ति-अर्थक पद संज्ञा के समान ही विभक्तिबोधक-प्रत्ययों को धारण करने वाले हो जाते हैं।
___ अभविष्यत् संस्कृत के क्रियातिपत्ति प्रथम पुरुष के एकवचन का रूप है । इसके कृत-रूप होन्तो और होमाणो होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-६० से मूल संस्कृत-थातु 'भू-भव' के स्थान पर प्रामृत में 'हो' की श्रादेश प्राति; ३-९८० से प्राप्तांग 'हो' में क्रियातिपत्ति के श्रार्थ में प्राकृत में कम से 'मत तथा माण' प्रत्ययों की प्रादेश-प्राप्ति और ३-२ से कियातिपति के अर्थ में प्रातांग होत तथा होमाण' में प्रथमाविभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रामध्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डोश्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप होती और होमाणी' सिद्ध हो जाते हैं।
हरिण-स्थान संस्कृत के सप्तमी-विमक्ति के एकषचन का रूप है। इसका प्राकृत-रूप हरिण-हारणे होना है । इसमें सूत्र-संख्या ४-१६ से 'स्था' के स्थान पर 'ठा' की प्राप्ति; २-८८ से भावेश-माप्न '४' के