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* प्राकृत व्याकरण *
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विलीडेबिरा ॥ ४-५६ ॥ विली चिरा इत्यादेशो वा भवति ।। विराइ । यिलिजइ ॥
अर्थ:--'नष्ट होना, निवृत्त होना' आदि अर्थक संस्कृत-धातु 'वि + लो' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'विरा' धातु की आदेश प्रामि होती है। बैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'दि + ली' के स्थान पर विलिज्ज' रूप की भी प्राप्ति होगी । जैसे:-विलीयते-विराइ अथवा विलिज्जर-वह नष्ट होता है अथवा वह निवृत्त होता है ॥ ४-५६ ।। ।
रुतेरञ्ज-रुण्टौ ॥ ४-५७ ॥ रौतेरेतापादेशौ वा भवतः ।। रुञ्जइ । रुएटइ : रवई ।।
अर्थ:-श्रावाज करने अर्थक संस्कृत धातु 'रु' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से हज और रुएट' की आदेश प्राप्ति होती है । वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'र' के स्थान पर 'रव' की भी प्राप्ति होगी। जैसे:-रीति-रुकजइ, रुण्टइ अथवा इयान्वह पायाज करता है ।। ४-५७ ।।
श्रुटे ईणः ॥ ४-५८॥ शृणोते हेण इत्यादेशो वा भवति ।। हणइ । सुणइ ।।
अर्थ:-सुनने अर्थक संस्कृत--धातु 'भू' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकल्प से 'ण' धातु-रुप की प्रादेश-प्राप्ति होती है। वैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में 'ध्रु' का पुण रूपान्तर भी होगा । जैसे:गुणोतिहण अथवा सुण-बइ सुनसा है ॥ ४-५८ ।।.
धृगे धुवः ॥ ४-५६ ॥ धुनाने धुव इत्यादेशो वा भवति ॥ धुवइ । धुणइ ।।
अर्थ:-'पाना-हिलाना' अर्थक संस्कृत-धातु धू' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'धुव' धातु-रूप की आदेश प्राप्ति होती है । धैकल्पिक पक्ष होने से पक्षान्तर में धू' का धुण पान्तर भी होगा । जैसे:-धुनाति = धुबई अथवा धुण = वह कंपाता है.वह हिलाना है ॥ ४-५E 11.
भुवेहो-हुव-हवाः ॥४-६०॥ भुवो धातोों हुव हव इस्येते श्रादेशाचा भवन्ति ॥ होइ । होन्ति हुबइ । हुचन्ति |