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[ ३५४ ] * प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * meromrrowroorter00000rootstarrestion00000000000000006onstron
प्रस्थापेः पट्टव- पेरडयो ।। ४-३७ ।। प्रपूर्वस्य तिष्टतेपर्यन्तस्य पर पेण्डय इत्यादेशौ चा भवतः ॥ पढाइ ! वेण्डवइ। पट्टावह ॥
अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय प्यन्त सहित तथा प्र' उपपर्ण सहित संस्कृत-धातु प्रस्थाप' के स्थान (र प्राकृत-भाषा में विकल्प से 'पटुत्र और पेण्ठव' रूपों की प्रादेश प्राप्ति होती है । जैसे:-प्रस्थापयति = पढन और पेण्डपइ = वह स्थापित करवाता है । पक्षान्तर में पट्टापरूप भी होता है । ४-३७ ।।.
विज्ञपेर्वोक्काबुक्की ॥४-३८ ।। विपूर्वस्य जानतेपर्यन्तस्य वोक अधुक इत्यादेशौ वा भवतः ।। वोकइ । अधुकइ । विएणबइ।।
अर्थ:--प्रेरणार्थक प्रत्यय एयन्त सहित तथा 'वि' उपसर्ग सहित विशेष ज्ञान कराने अर्थक अथवा विनय-विनाते कराने अर्थक संस्कृण धातु 'विशप' के स्थान पर प्राकृत भाषा में 'वोक और अचुक ऐसी दो धातुओं की विकल्प से आदेश प्राप्ति होती है। पक्षान्तर में विज्ञापय' का प्राकृत रूपान्तर 'विष्णव' भी बनेगा । उदाहरण इस प्रकार है:-विज्ञापयति = वीकइ, अनुक्कड़ और विण्णवड़-वह विशेष ज्ञान करवाता है अथवा वह विनति करवाता है॥४-३८ ।।
अरल्लिव-चच्चुप्प-पणामाः ॥ ४-३६ ।। अर्पण्यन्तस्य एते त्रय आदेशा वा भवन्ति ॥ अग्लिवइ । चच्चुष्यइ । पणामह । पचे अध्येइ ॥
अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय ण्यन्त माहिल संस्कृत धातु 'अप' के स्थान पर प्राकृत-भाषा में विकल्प से तीन धातु रूपों को आदेश प्राप्ति होती है । जो कि इस प्रकार से है:-(१) अरिलव, (२) चच्चुप्य और (३) पणाम । पक्षान्तर में प्रार' रूप भी बनेगा । कारों के बाहरण इस प्रकार है:--अर्पयति आलिवइ, बच्चुप्पड़, पणामइ और अप्पेड़ = वह अर्पण करवाता है ।। ४. 1 .
यापेर्जयः ॥४-४०॥ याते पर्यन्तस्य जब इत्यादेश्नो वा भवति ।। जवइ : जावेइ ।।
अर्थः-प्रेरणार्थक प्रत्यय स्यन्त सहित संस्कृत धातु 'या' के स्थान पर प्राकृत भाषा में विकास से 'जब' धातु-रूप की श्रादेश प्राप्त होतो । पक्षान्सर में जाक' रूप की भी प्रालि होगी हो । जैसेयापयति = जपत्र अथवा जाह-वह गमन करवाता है। यह म्यसोत करवाता है। ४-४॥