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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * morno.00000000000000trootooseroserossworrrrrrseon600000000000000mari
प्रश्न:- केवल अकारान्त धातुओं के लिये हो ही उपरोक्त चार प्रत्ययों का वैकल्पिक विधान क्यों किया गया है ? अन्य स्वरान्त धातुओं में इन प्रत्ययों की संयोजना का विधान क्यों नहीं किया गया है?
उत्तरः-चूँकि प्राकृत भाषा में अकारान्त धानों के अतिरिक्त अन्य स्वशन्त-धातुओं में उक्त लकारों से सम्बन्धित द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ का अभिव्यक्ति में केवल क्षे प्रत्यय 'सु' और 'ह' की शप्ति ही पाई जाती हैं; इसलिये परम्परा के प्रतिकूल विधान करना अनुचित एवं शुद्ध है। इसी दृष्टिकोण से केवल अकारान्त-धातुओं के लिये ही उपरोक्त विधान सुनिश्चित किया गया है। अन्य स्वसन्त धातुओं के उदाहरण इम प्रकार हैं:-(स्त्रम् ) भत्र अथवा भवतात (त्वम् ) भवेः और (स्वम् ) भूया: = (तुम) होमु - तू हो अथवा तू हो वे अथवा तू होने योग्य हो । दूसरा उदाहरण इस प्रकार हैं:(त्वम् ) तिष्ठ अथवा तिष्ठतात; (स्वम् ) तिष्ठ और ( स्वम् ) तिष्ठया: = ( तुम ) ठाहि = तू टहर; तू
श्रीर तूं हरने योग्य हो। इन १६ हरणां दी गई धातुएँ 'हा' और ठाक्रम से ओकारान्त और श्राकारान्त हैं; इसलिये सूत्र-संख्या ३-७५ कं विधि-विधान से अकारान्त नहीं होने के कारण में वक्त तीनो लकारों के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में अकारान्त धातुओं में प्रामध्य प्रत्यय 'इज्जसु. इजाहि, इन और लुक' की प्राप्ति इनमें नहीं हो सकती है। इसलिये या सिद्धांत निश्चित हुया कि केवल अकारांत धातुओं में ही उक्त चार प्रत्यय जोड़े जा सकते हैं; अन्य स्वरान्त धातुओं में ये चार प्रयन्य नहीं जोड़े जा सकते हैं।
हस अथवा हसतात इसेः और हस्याः सांकृत के क्रमशः प्रामार्थक, विधि-अर्थक और आशीषर्थक के द्वितीय पुरुष के एकवचन के अकर्मक क्रियापद क म.प हैं। इन सभी रूपों के स्थान पर प्राकृत में समान रूप से यहाँ पर पाँच रूप दिये गये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:-( हसं जसु, (२) हसजहि, (३) हसज्जे, (४) हम और (५) हप्तसु । इनमें से प्रथम तीन रूपों में सूत्र संख्या ५-१० सं मूल प्राकृत अकारान्त धातु 'हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के श्रागे प्रामध्य प्रत्यय 'इज्जसु, इज्जहि और इज्जे में
आदि में'इ' स्वर का सदुभाव होने के कारण से लोप; ३६४५ से प्राकृत में प्राप्त हलन्तांग 'हस' में खत तीनों लकरों के साथ में द्वितीय पुरुष के एकवचन के सदभाव में प्राकृत में कम से 'इज्जसु, इज्जहि और इले प्रत्ययों की प्राप्ति और ... हलन्त-अंग हम्' के साथ में उक्त प्राप्त प्रत्ययों की संधि होकर हसेजमु इसेन्जाह और हसेजे रूप सिद्ध हो जाते हैं।
चतुर्थ रूप 'हस' में मूल अकारान्त धातु 'हम' के साथ में सूत्र-संख्या ३.१७५ के उक्त प्रामव्य प्रत्ययों का लोप होकर उल्लिखित लकारों के अर्थ में द्वितीय पुरुप के एकवचन के संदर्भ में 'हस' रूप सिद्ध हो जाता है।
पाँचवे रूप 'हस' की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१७ में की गई है।