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* प्राकृत व्याकरण
[ ३९७ ] "40000000sepatoss+for+000000000000000000000000000000000000•riवर्णित उपरोक्त राति अनुसार तत्पश्चात्त सूत्र-संख्या ३.१७५ से प्राप्तांग पढे' में भविष्यन-काल के सभी पुरुषों के सभी वचनों के अर्थ में प्राप्तध्य संस्कृतीय सर्व-प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल दो प्रत्यय ही 'जन तथा इजा' की क्रम से प्राप्ति होकर पढेज्ज तथा पढेज्जा रूप सिद्ध हो जाते हैं।
पठिष्यति संस्कृत के भविष्यत् काल के प्रथम पुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत रूप पढ हेइ होता है। इसमें सूत्र संख्या ६.१६ से मूल संस्कृत हलन्त धातु 'पठ्' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ठ' के स्थान पर 'ढ' की प्राप्तिः ४२३६ से प्रान प्राकून धातु 'पद् के अन्त्य हलन्त व्यञ्जन ढ' में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्रामि; ३.१५७ से प्रान बिकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर 'इ' की मानि; ३.१६ से प्राप प्राकृत धातु अन्न पढि' में भविष्यनकाल बोधक प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति
और ३-१३६ से भविष्यत् अर्थक प्राप्तांग 'पदि इ में प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पाहिद कमिद्ध हो जाता है।
हसत हसतात, हसन्तु; हस हसतात; हसत हसानिः हसाम और हसे, इसेयुः, हसे:, होत; हसेयम्, हसम, संस्कृत के प्राज्ञार्थ और विधि-लिङ्ग अर्थक तीनों पुरुषों के एकवचन के नथा बहुवचन के अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इनके प्राकृन रूप समान रूप से घऔर समुख्य रूप से हसेज तथा हभिजा (अथवा इसेज्जा) होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१५६ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थिन अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर 'ए' को प्राप्ति; तथा द्वित्तीय रूप में ४-२२८ से उक्त 'अ' के स्थान पर'' की प्रादि यो क्रम से प्राय 'हसे औ. इसि' म सूत्र संख्या ३-१५५ से श्राज्ञार्थ और विधिलिक के तीनों पुरुषों के दोनों वचनों के प्रथम प्राध्य संस्कृतीय पर्व-प्रत्ययों के स्थान पर प्राकृत में केवल वो प्रत्यय 'ज्ज तथा जा' का हा कम से प्रारम होकर हसज्ज हसिज्जा रूप सिद्ध हो जाते हैं।
इसउ' क्रियापद रूप फी निद्धि सूत्र-संच्या ३-१७ में की गई है।
अतिपातयति, अतिपातयन्ति , अतिपातयति, अतिपातयथ, अतिप्राप्तयामि और आतिपातयामः संस्कृत क बतमानकाल के प्रेरणार्थक क्रियावाले तीनों पुरुषों के क्रमशः दोनों वचनों के सकर्मक क्रियापद के रू हैं। इन प्राकृत-रूप नमान से अवारजा और अइवायावेजा होते हैं। इनमें सूत्रसंख्या १-१७७ से मूल संस्कृत धातु 'अतिपन्' में स्थित श्रम 'त' का लोप; १-२३६ से 'प' के स्थान पर 'ब' का प्रमात्र ३-१५३ से प्रेरणा मात्र के अस्तित्व के कारण से प्रात व्यञ्जन 'व' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'श्रा' की प्राप्ति ४-२३६ से संस्कृत को मूल धातु 'अतिपन्' के अन्त्य हलन्त व्यखन 'त' में विकरण प्रस्थय 'अ' की प्राधि; १-१७७ से वक्त प्राप्त धन्यत' का पुनः लोय; १.८० से लोप हुए 'त' क पश्चात् शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' को बैकल्पिक रूप से मतिः ३-१५६ से प्रथम रूप में लोपहर 'स' के परवात शेष रहे हुए 'म के स्थान पर 'य' का प्राप्ति नहीं होकर 'ए' की प्राप्ति, ३.१४६ से द्वितीय रूप में प्राप्तांग 'अइवाय' में प्रेरणार्थक भाव के अस्तित्व में 'श्रावे' प्रत्यय को प्राप्ति, १-५ से द्वितीय रूप मशालोग 'वाय' के साथ में प्राप्त प्ररवय 'बाये का संधि होकर 'प्रवाया की प्राप्ति; अत