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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * mooooooo000ooterstootoscomwww.poranmoverestmissorrowroom प्रयोग के रूप बन जाया करते हैं; जैसे:-मया नम्बवे-मए नवेज्ज अथवा मा नविग्जेज्जम्मुझ से नमस्कार किया जाता है अथवा मुझ से समा जाता है-झुका जाता है । अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं:-तेन लभ्यत-तंग लज्ज अथवा ता लज्जेि उम उम से प्राप्त किया जाता है। तेन प्रास्यते = तेण थच्छेज्ज अथवा तेण आच्छज्जेज और तण अकलो अइ उससे बैठा जाता है । इन उदाहरणों में यह बतलाया गया है कि प्राकृत में कर्मणि-माव-प्रयोग-योतक प्रत्यय 'इत्र अथवा इज्ज' की प्राप्ति कभी कभी वैकल्पिक रूप से भी होता है। इसका कारण 'बहुला' सूत्र है। इस प्रकार संस्कृत में कमणि-भाव-प्रयोग के अर्थ में 'य' के स्थान पर प्राकृत में 'इज्ज' प्रत्यय की दिश-प्रानि होती हैं। यही तात्पर्य इस सूत्र का
हस्यते संस्कृत का भावे प्रयोग अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप हसीआई और हसिजई होत हैं । इनमें सूत्र-संगमा १० मेगावत का काम में प्रिन्स्य स्वर 'अ' के श्रागे प्राप्त भावे प्रयोग-श्रर्थक 'इंश्र और इज' प्रत्ययों में कम सं श्रादि में स्थित दीर्घ और हव स्वर 'ई तथा ३' का सद्भाव होने के कारण से लोग; ३-१६० से प्राप्तांग हलन्त धातु 'हस में भावे-प्रयोग अर्थक प्रत्यय 'ई और इज्ज' की कम से प्राप्त और ५.५ से हलन्त धातु 'हम' के साथ में उपरोक्त रीति से प्राप्त प्रत्यय ईश्र और इज' की क्रम से संधि एवं ३.१३६ से प्राप्तांग भावे-प्रयोग अर्थ रूप हसीन
और इसिम्स में वर्त-निकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय'ते' के स्थान पर प्राकृत में कम से 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति हो कर हसीअड़ और हासज्जई रूप मिद हो जाते हैं।
हस्यन् संस्कृत का वर्तमान कृदन्न रूप है । इसके प्राकृत रूप:--हसीअन्तो हसिज्जन्तो, इसीय. माणी और हमिनमाणो । इनमें गूत्र-संख्या ५-१० से मूल प्राकृत धातु हस' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के आगे प्राप्त भावे प्रयोग- अर्थक 'ईअ और इज' प्रत्ययों में कम से श्रादि में स्थित दीर्घ और हस्त्र स्वर ई तथा इ' का सद्भाव होने के कारण से लोप; ३.१६० से प्राप्तांग हलन्त धातु 'हस' में भावप्रयोग-श्रर्थक प्रत्यय 'ईथ और इज्ज' की (चारों रूपों में) क्रम से प्राप्ति, १.५ से हलन्त धातु 'इस' के साथ में उपरोक्त गीति से प्राप्त प्रत्यय 'ईध और इज फी कम से (चारों रूपों में) संधि; ३-१-१ से कम से प्राप्तांग 'हसोम और हसिड तया हमीन और हसिग्ज' में वर्तमान कृदन्त-अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय ‘शत - अत' के स्थान पर प्राकृत में 'न्त और माण' प्रत्ययों की (चारों रूपों में कम से प्राप्ति; और ३-२ से क्रम से चारों प्राप्तांग 'हसीअन्त, हसिज्जन्त, हसीनमाण तथा हसिज्जमाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुलिग में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो = प्रो' प्रत्यय का प्रारित होकर क्रम से चारों रूप हसीअन्तो, इसिजन्तो, हसीअमाणो तथा हसिज्जमाणी सिद्ध हो जाते हैं।
पठ्यते संस्कृत का कर्मशि-रूप है। इसके प्राकृत रूप पढीला और पद्विाजइ होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या १-१६ से मूल संस्कृत-धातु '१' में स्थित 'ठ' के स्थान पर प्राकृत में 'ढ' की प्राप्ति; ३-१६०