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[ २८६ ] आता है । कर्मणि प्रयोग और भावे प्रयोग की रचना पद्धति एक जैसी ही अर्थात् ममान ही होती है; इन क्षेत्रों में इतना सा नाम मात्र का ही अन्तर है कि कर्मणि प्रयोग मुख्यतः सकर्मक धातुओं से ही बनाया जाता है जबकि भावे प्रयोग अकर्मक धातुओं से ही बनता है; प्रत्यय आदि की दृष्टि से दोनों की रचनाऐं परस्पर में समान ही होती है। भावे प्रयोग में कर्मका अभाव होने से सदा प्रथम पुरुष और एकवचन ही प्रयुक्त होता है जबकि कर्मणि प्रयोग में कर्म का सद्भाव होने से तीनों पुरुषों के साथ साथ बहुवचन का प्रयोग भी होता है। इन दोनों प्रयोगों में कर्ता तृतीयान्त होता है और कर्म प्रथमान्त होता है । क्रिया के पुरुष और वचन प्रथमान्त कर्म के अनुसार होते हैं। जैसे:- अस्माभिः स्वम् आहूयसे। हमारे द्वारा तू बुलाया जाता है; यहाँ कर्ता 'श्रस्माभिः बहुवचनान्त होने पर भी कम 'त्वम्' एकवचनान्त होने से 'आइय से' क्रिया कम के अनुसार एकवचनात्मक और द्वितीय पुरुषात्मक प्रदर्शित की गई है । इस प्रकार यदि किसी कर्तृवाच्य प्रयोग को कर्म-वाध्य में बदलना हो तो प्रथमान्त कर्ता को तृतीयान्त कर देना चाहिये और द्वितीयान्त कर्म को प्रथमान्त में बदल देना चाहिये। जैसे:- पुरुषः स्तेनं प्रहरति । पुरुषेण स्तेनः प्रह्नियते - पुरुष से चोर मारा जाता है ।
* प्राकृत व्याकरण
'चि, जि' इत्यादि कुछ प्राकृत धातुओं के बनने वाले कर्मरिण प्रयोग- मावे प्रयोग का वर्णन बागे बतलाया जायेगा; यहाँ पर तो सर्व सामान्य रूप से बनने वाले कर्मणि-प्रयोग भावे प्रयोग की पद्धति का परिचय कराया जा रहा है; तदनुसार जैसे संस्कृत भाषा में मूल धातु और आत्मनेपदीय पुरुष बोधकप्रत्ययों के मध्य में कर्मणि-मात्रे प्रयोग द्योतक प्रत्यय 'क्यन्य' जोड़ा जाता है वैसे ही प्राकृत भाषा में भी मूलधातु और कर प्रयोग के लिये कहे गये पुरुष बोधक प्रत्ययों के बीच में संस्कृतोय प्राप्तभ्य प्रस्यय 'क्य= थ' के स्थान पर 'ई अथवा दज्ज' प्रत्यय की संयोजना कर देने से वह क्रियापर का रूप कर्मणि-प्रयोग द्योतक अथवा भावे प्रयोग घोतक बन जाता है। इसका तात्पर्य यह है कि जब किसी भी प्राकृत धातु का अमुक काल में कर्मण-प्रयोग अथवा भावे प्रयोग बनाना हो तो उस काल के कर्तीरे प्रयोग के लिये कहे गये पुरुष बोधक प्रत्यय जोड़ने के पहले मूल धातु में 'इअ अथवा इ' प्रत्यय लगाया जाना चाहिये और तदनन्तर जिस काल का कर्मणि भावे प्रयोग बनाना हो उस काल के कर्तरि प्रयोग के लिये कड़े गये प्रत्यय लगा देने से कर्मणि-भः वे प्रयोग के रूप सिद्ध हो जाते हैं। जैसे:- हम्यते-हमी अथवा हसिज्य = उससे हँसा जाता है । हस्त = हस्यांश्रन्तो अथवा हसिज्जन्तो और हसोमाणी अथवा हसिज गाणो हँसा जाता हुआ; यह उदाहरण वर्तमान कृदन्त पूर्वक भावे प्रयोग वाला है। चूँकि प्राकृत में वर्तमान कूदन्त में सूत्र संख्या ३-१८१ के निर्देश से संस्कृती प्राप्तव्य वर्तमान-कुन्त-बोधक प्रत्यय शत्रू =
के स्थान पर और माय' प्रत्ययों की प्राप्ति होती है; इसलिये संस्कृतीय वर्तमान कृदन्तीय क्रिया. पत्र 'हस्यत्=हस्यन्' के प्राकृत में उपरोक्त राशि से चार रूप होते हैं। सूत्र की वृत्ति में दो उदाहरण और दिये गये हैं; जो कि इस प्रकार हैं:- पठ्यते-पढी अइ अथवा पढिज्जइ = इससे पढ़ा जाता है । भूयते = होईअ अथवा होइज्ज= उससे हुआ जाता है। 'बहुलम्' सूत्र के अधिकार से कभी कभी कर्मणि भावे. प्रयोग के अर्थ में प्राकृत में प्राप्तथ्य प्रत्यय 'ई' अथवा इज्ज' की प्राप्ति नहीं होकर भी उक्त कर्मणि-भावे