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* प्राकृत व्याकरण *
[ ३१३ ] In+0000000000000rrrrrrrrrrotser.000000000000000000000**astrono0000000
श्रोष्यामि पृत्त के भविष्यस काल तृती पुरुष के एकवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके अायत-रूप-सोरिमि,
सोमि , सोच्चिस्मामि, सोभियहामि, सोच्छिरस और सोच्छ हात हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-१७१ से मूल संस्कृत धातु 'अ' के स्थान पर प्राकृत में भयान काल के प्रयोगाधक 'सोच्छ' की श्रादेश-.fम: ३-३५७ से प्रथम रूप से लगाकर पाँचवें रूप तक प्राप्त प्राकृत-शत 'मोच्छ' में स्थित स्य स्वर 'श्र के स्थान पर आगे भविष्यत-काल-वाचक प्रत्यय का मभाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; :-१६६ र ३-६६ से द्वितीय रूप, तृतीय रूप और चतुर्थ रूप में पूर्वोक्त राति से प्रामांग 'सोच्छि' में भविष्रत-काल-यापक प्रत्यय 'ह, स्सा और हा' की क्रम में प्राप्ति; ३.१७२ में प्रथम रूप में भविष्यत् कार वाक प्राच्य प्रत्यय 'हि' का लोप और ३.१४१ से भविष्यत-काल के अर्थ में कम से प्राप्त प्रथम, द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपांग-सोच्छि, सोच्छहि. सोलिमा और मामिछा' में सृनीयपुरुष के एकवचन के प्राथं में प्राप्तम्य प्रत्यय मि' की प्राप्ति होकर कम से प्रथम चार रूप 'सोच्छिाम सोच्छिाहीम, सरसाम और सोच्छ हामि सिद्ध हो जाते हैं।
पंचम रूप सोपस मे मूल-प्राकृत-अंग सोच्छि' की प्राप्ति उपरोक्त चार रूपों में वर्णित विधि विधानानुसार जानना जाहिये; तत्पश्चात प्राप्तांग 'सोच्छि' में सूत्र संख्या ३-
१६ संभावश्चत-काल के अर्थ मे ततीय-पुरुष के एक वचन के भाव में केवल सं' प्रत्यय की हा प्राप्ति होकर एवं शेष सभी एस. दथक प्राप्तव्य प्रत्ययों का प्रभाव होकर पंचम रूप-सोच्छिस सिद्ध हो जाता है।
छ । १ संचछे की सिाब सूत्र सख्या ३-१७१ में की गई है।
श्रीष्याम: संस्कृत के भविष्यत-काल तृतीय पुरुष के बहुवचन का सकर्मक क्रियापद का रूप है । इसके प्राकृत रूप यहाँ पर केवल छह ही दिय गये हैं, जो कि इस प्रकार है:--१ मच्छिमो, ५ सोच्छि. हिमो) ३ मांच्छिापामा, ४ सोच्छहामी, ५ सोधिहस्सा और ६ सोच्छिहित्था । इनमें सूत्र-संख्या ३.१७१ स मूल संस्कृत-धातु श्रु' के स्थान पर प्राकृत में मषिष्यत-काल के प्रयोगार्थ सोच्छ' रूप का आदेश. प्राप्त; ३-१५७ स प्राप्तांग सोच्छ' में 'स्थत अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भन्निध्यत-काल-वाचक
त्यय का सद्भाव होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; तत्पश्चात् द्वितीय, तृतीय और चतुर्थ रूपों में सूत्रसंख्या ३-१६६ और ३.१६७ से क्रमशः भविष्य काल वाचक प्रत्यय 'ह, स्पा और हा की प्राप्नि; ३-१४२ से प्रथम रूप में भविष्यत-काल-वाचक प्राव्य प्रत्यय 'हि' का अश्वा स्लाफा अथवा 'हा' का वैवाहिक रूप से लोप, अन्त में सूत्र-संख्या ३-१४४ से उपरोक्त रीति से भविष्यन-अर्थ में प्राप्तांग सोच्छि, सोनिहि. सौछस्सा और सो, कलहा' में तृतीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्रापश्य प्रत्यय 'मी' की प्राप्ति होकर श्रम से प्रथम चार रूप सोच्छिमी, सोच्छिामी, सोरिछस्सामी और सोच्छिहामी मिद्ध हो जाते हैं।
पाँच और छठे रूप सोपिछहिस्सा तथा सोच्छिहिस्था' में मूल अङ्ग 'सो कत्र की प्रानि उप. रोक्त विधि-विधानों के अनुसार ही होकर सूत्र-संख्या ३-१६८ से भविष्यस काल के अर्थ में तृतीय पुरुष