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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * やいやりのなかからないから00000000 क बबहुचन के प्रभाव में कवल क्रम सं हिस्सा नया हत्था' प्रत्ययों की ही प्राप्तिकर एवं शेष सभी एतदर्थक प्राप्तभ्य प्रस्थयों का अभाव हो कर का से पाँचवाँ और छठा रूप 'सोच्छिहिस्सा और सोच्छिहित्था' भी सिद्ध हो जाते हैं।
गमिष्यति मंस्कृत के भविष्यत-काव प्रथम पुरुप के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप गच्छद और गच्छहिई होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-१७९ से मूल संस्कृत धातु 'गम्' व स्थान पर प्राकृत में भविष्यत् काल के प्रयोगार्थ 'गच्छ' रूप की श्रादेश-पाति; ३-२५७ में प्राग गच्छ' में स्थित अन्स्य म्वर 'अ' कथान पर प्रागे भविष्यत् काल-वाचक प्रत्यय का सदुभाव हाने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; ३.६६ से द्विताय रूप में प्राप्तांग गन्छि' म भविष्यन काल के बोधनाथं हि' प्रत्यय को प्राप्ति, ३.१७२ से प्रथम-रूप में भावष्यत-काल बोध प्राप्तव्य प्रत्यय 'हि' का वैकल्पिक रूप से लोप और ३-१६६ से भविष्यत् काल के अथ में कम से प्राप्तांग 'गच्छि' और 'गन्हि ' में प्रथम - पुरुष के एकवचन के अर्थ में प्राप्तव्य प्रत्यय 'इ' को संप्राप्ति होकर क्रम से दोनों रूप गच्छिद और गाच्छहिड़' सिद्ध हो जाते हैं।
गमिष्यन्ति स ऋत के भविष्यत् :काल प्रथम पुरुष के बहुवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप गच्छन्ति और गछि हेन्ति होते हैं। इनमें भविष्यत काल के अर्थ में मूल अंग रूप 'गाँच्छ और गन्छि है' की उपरोक्त एकवचन के अथ में प्राप्तांग रूपों के समान ही होकर इनमें सूत्र-संख्या ३-१४२ से प्रथम पुरुष के बहुवचन के अर्थ में प्रत्रव्य प्रत्यय 'न्ति' को प्राप्ति होकर कम से दोनों रूप गच्छिन्ति और गच्छिहिन्ति सिद्ध हो जाते हैं।
गमिष्यासे संस्कृत के भविष्यात काल द्वितीय पुरुष के एकवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूपगच्छिसि और गाकछ हिसि होते हैं । इनमें भविष्यत्काल अर्थक अंग रूपों की प्रानि प्रश्रम पुरुप के एकवचन के अर्थ में वर्णिन उपरोक्त सूत्र-संख्या ३-१७, ३.१५७, ३-१६६ और ३.७१ से जानना चाहिय; तत्पश्चान सूत्र संख्या ३-१४ से भविष्यतकाल के अर्थ में कम से प्राप्तांग 'गच्छ और गान्धहि' में द्वितीय पुरुप के एकवचन के अर्थ में प्रामन्य प्रत्यय 'मि' की प्रापि होकर मच्छिसि और गाछिहिसि रूम सिद्ध हो जाते हैं।
गमिष्यथ संस्कृत के भविष्यत काल द्वितीय पुरुष के बहुवचन का अकर्मक क्रियापद का रूप है। इसके प्राकृत रूप गच्छित्था, गहि , गच्छिहित्या और गच्छहिह होते हैं। इनमें भविष्यात काल-योनक अंग रूप 'गच्छि और गच्छिाह' की प्राप्ति इसी सूत्र में कार बर्णित प्रथम पुरुष के एकवचन के अर्थ में कथित सूत्र-संख्या ३-१०१, ३-१५५; ३.२२६ और ३-१७२ से जानना चाहिये; तत्पश्चात सूत्र-संरूपा ३-१४३ से भविष्यत्काल के अर्थ में कम से प्राप्तांग 'गच्छ और गच्छिहि' में द्वितीय पुरुष के बहुवचन के अर्थ में कम से प्राप्तव्य प्रत्यय 'इस्था और ह' को चारों अंगों में प्राप्ति होकर कम से चारों रूप गच्छित्था, गच्छिह, गच्छिहित्था और गच्छविह सिद्ध हो जाते हैं । इनमें इतनी और विशेषता