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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित ,
तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कित्ताहीम रूप भी सिद्ध हो जाता है। ३-१६
कृ-दो-हं ॥३-१७०।। करोते ददातश्च परो भविष्यति विहितस्थ म्यादेशस्य स्थाने हं या प्रयोक्तव्यः ।। काहं । दाहं । करिष्यामि दास्यामीत्यर्थः ।। पक्षे । काहिमि । दाहिमि । इत्यादि ।
अर्थः-संस्कृत भाषा में पाई जाने वाली धातु 'क' और 'दा' के प्राकृत रूपान्तर 'का' तथा 'दा' में भविष्यत-काल के अथं में प्राप्तव्य प्राकृत-प्रत्यय 'हि' आदि के परे बहने पर तथा तृतीय-पुरुष के एकवचन बोधक प्रत्यय 'मि' के परे रहने पर कभी कभी वैकल्पिक रूप से ऐमा होता है कि उक्त भविष्यतकाल-द्योतक ' ' आदि में स्थान पर सौर ३ पुष को प्रत्यय 'मि' के स्थान पर अर्थात दोनों ही प्रकार के प्रत्ययों के स्थान पर उक्त दोनों धातुओं में केवल 'ह' प्रत्यय को ही आदेश-प्राप्ति होकर भविष्यस काल के अर्थ के तृतीय पुरुष के एकवचन का अर्थ प्रकट हो जाता है । यो प्राकृत-धातु का अथवा दा' में रहे हुए भविष्यत-काल-योतक प्रत्यय 'हि' आदि का भी लोप हो जाता है और तृतीय पुरुष के एकवचन-अर्थक प्रत्यय 'मि' का भी लोप हो जाता है तथा दोनों ही प्रकार के इन लुन प्रत्ययों के स्थान पर कंवल एक ही प्रत्यय 'ई' की ही आदेश प्राप्ति होकर तृतीय पुरुष के एकवचन के अर्थ में भविष्यत् काल का रूप न धातुओं का तैयार हो जाता है । जैसे:-करिष्यामि अथवा कर्तास्मि-काह= मैं करूँगा अथवा मैं करता रहूंगा; चूंकि यह विधान वैकल्पिक स्थिति वाला है अतएव पक्षान्तर में 'काहिमि' आदि रूपों का भी निर्माण हो सकेगा। 'दा' धातु का उदाहरण इस प्रकार है:-दास्यामि अथवा दातास्मि = दाई = मैं दऊँगा अथवा में देता रहूंगा । पक्षान्तर में वैकल्पिक स्थिति होने के कारण 'दाझिमि रूप का भी सद्भाव होगा । यह सूत्र कंवल प्राकृत धातु 'का' और 'दा' के भविष्यत-काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन के सम्बन्ध में ही बनाया गया है।
करिष्यामि और कर्तास्मि संस्कृत के क्रमशः भविष्यात-काल-वाचक लट् लकार और लुदलकार के तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप हैं । इनके प्राकृत रूप (समान-रूप से) काई और काहिमि होते हैं। इनमें सूत्र-संख्या ४-२१४ से मूल संस्कृत-धातु 'क' में स्थित अन्त्य स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'प्रा' की प्रानि होकर प्राप्ति होकर प्राकृत में 'का' अङ्ग-रूप की प्राप्ति; तत्पश्चात प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३१७० से प्राग 'का' में मविष्यत-काल के अर्थ में तृतीय पुरुष के एकवचन में पूर्वोक्त सूत्रों में कथित प्रामध्यप्रत्यय 'हि' और 'मि' दोनों के हो स्थान पर 'ई' प्रत्यय की आनेश-प्रानि होकर 'काई' &प सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप 'काहिमि' में 'का' अङ्गरूप की प्राप्ति प्रथम रूप के समान ही होकर सूत्र संख्या ३.९६६ से प्राप्तांग 'का' में भविष्यम-कान-सूचक प्रामध्य प्रत्यय 'हि' की प्राप्ति और ३-१४१ से भविष्यात