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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
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संयोजना होने पर ' धातु+पुरुष बोधक प्रत्यय' के स्थान पर केवल दो रूपों की प्रवेश-प्राप्ति हो जानी है। के रूप इस प्रकार है: - आम और अनि इन श्रादेश प्रात दोनों रूपों में से प्रत्येक रूप द्वारा भूतकालिक लकार के सभी पुरुषों के सभी वचनों का अर्थ प्रतिध्वानंत हो जाता है । सारांश रूप से तात्पर्य यह है कि भूतकाल में 'श्रम्' धातु के कंवल दो रूप होते हैं; १ आमि और २ मि ही रूप सभी पुरुषों में तथा सभी वचनों में प्रयुक्त होते हैं। उदाहरण इस प्रकार है::-मः चामोत् त्वम् आसीः, थला अहम् आसपास अथवा श्रहेति = [= वह था अथवा तू था अथवा मैं था, इस उदाहरण में यह बतलाया गया है कि 'तीत आती और श्रवम् प्रथम द्वितीय तृतीय पुरुष के एकवचन के क्रियापद के रूपों के स्थान पर प्राकृत में केवल एक ही क्रियापद का 'आसि अथवा असि' का प्रयोग होता है। दूसरा उदाहरण इम प्रकार है:- ये आसन जे श्रासि श्रथवा श्रहेसि = जो थे; यह उदाहरण बहुत्रचनात्मक है; फिर भी इसमें एकवचन के समान ही किसी भी प्रकार फे पुरुष भेर का विचार किये बिना ही 'आमन्' संस्कृत रूप के स्थान पर 'आसि अथवा असि' का प्रयोग कर दिया गया है । यो वचन का अथवा पुरुष का और प्रत्यय भेद का विचार नहीं करते हुए समुच्चय रूप से संस्कृतोय तीनों लकारों के अर्थ में प्राकृत में आदेश प्राप्त रूप 'श्रसि अथवा श्रदेोसे' का प्रयोग किया जाता है। इस प्रकार से प्राकृत में भूतकाल के अर्थ में कारों की दृष्टि से मर्यादा-भेद को अत्यधिक न्यूनता पाई जाता है; जो कि ध्यान देने योग्य है ।
आसीत्, आसी और आसम् संस्कृत के भूतकाल के प्रथम द्वितीय तृतीय पुरुष के एकवचन के रूप है। इनके प्राकृत रूपान्तर श्रासि और अहे से होते हैं। इनमें सूत्र- संख्या ३-१६४ से मूल संस्कृत धातु 'अस' के साथ में भूतकाल वाचक प्राकृत प्रत्ययों को संयोजना होने पर दोनों के ही स्थान पर 'श्रम अथवा असि' रूपों को आदेश प्राप्ति होकर प्राकृत के रूप 'आति और अहेसि' सिद्ध हो जाते
'सी' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ८६ में की गई है। 'तुम' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३९० में की गई हैं । अहं सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१०५ में की गई है। '' अव्यय रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७ में की गई।
'जे सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-५८ में की गई है।
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आसन संस्कृत के भूतकाल वाचक लक्ष् लकार के प्रथम पुरुष के बहुवचन का है। इसके प्राकृत रूपान्तर श्रमि और अहंति होते हैं। इनमें सूत्र संख्या ३-१६४ से मूल संस्कृत धातु 'अस' के साथ में भूतकालवाचक प्राकून प्रत्ययों की संयोजना होने पर दोनों के ही स्थान पर 'आसि और अदेसि रूपों को आदेश प्राप्त होकर प्राकृत रूप 'आसे और अहेसि' सिद्ध हो जाते हैं । ३-१६४।
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