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में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रातव्य प्रत्यय 'जस' का प्राकृत में लोर होकर प्रथमाबहुवचनान्त प्राकृत पद जिणवरा सिद्ध हो जाता है । ३-१३७ ॥
क्योर्य लुक् ॥
३-१३८ ॥
* प्राकृत व्याकरण *
क्यङन्तस्य क्यङ षन्तस्य वा संबन्धिनो यस्य लुग्भवति || गरुश्राह । गरुआ | गुरु गुरु भवति गुरुरिवाचरति वेत्यर्थः । क्वङषु । दमदमाह । दमदमाह ॥ लोहियाइ | लोहिया
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अर्थ:-- संस्कृत, प्राकृत आदि भाषाओं में संज्ञाओं पर से धातुओं अर्थात क्रियाओं के बनाने का विधान पाया जाता है; तदनुसार वे नाम-धातु कहलाते है और रोति से प्राप्त धातुओं में अन्य सबं सामान्य धातुओं के समान ही कालवाचक एवं पुरुष-बोधक प्रत्ययों की संयोजना की जाती हूँ । जब संस्कृतसंज्ञाथों में 'काक' और 'क्ष' 'य' और 'इ' प्रत्ययों की संयोजना की जाती है; तब वं शब्द नामक नहीं रहकर धातु-अर्थक बन जाते हैं; यों धातु-अंग की प्राप्ति होने पर तत्पश्चात् उनमें काल-वाचक तथा पुरुष बोधक प्रत्यय जोड़े जाते हैं। ऐसे धातु रूपों से तब 'इच्छा, आचरण, अभ्यास' आदि बहुत से श्रथं प्रस्फुटित होते हैं। जहां अपने लिये किसी वस्तु की इच्छा की जाय वह 'इच्छा अर्थ में' उस वस्तु के बोधक नाम के श्रागे 'क्यच्=य' प्रत्यय लगाकर तत्पश्चात कालवाचक प्रत्यय जोड़े जाते हैं । उदाहरण इस प्रकार है:- पुत्रीयति = (पुत्र + ई + य् + ति) = वह अपने पुत्र होने की इच्छा करना है । कवीयति= (कवि + ई + य + ति) = अपने आप कवि बनना चाहता है । कर्त्रीयति = खुद कर्ता बनना चाहता है। राजीवति आप राजा बनना चाहता है; इत्यादि । कभी कभी क्यच्य' 'स्यवहार करना अथवा समझना' के अर्थ में भां श्रा जाता है। जैस:-पुत्रीयति छात्रम् गुरुःगुरु अपने छात्र साथ पुत्रवत् व्यवहार करता है। प्रासादयति कुटयां भिक्षुः भिखारी अपनी झोपड़ी को महल जैसा समझता हूँ ।
जहां एक पदार्थ किसी दूसरे जैसा व्यवहार करे; यहां जिसके सदृश व्यवहार करता हो, उसके बाचक नाम के आगे 'वयड न्य' प्रत्यय लगाया जाता है एवं तत्पश्चात् काल बोधक प्रत्ययों की संयोजना होती है। जैसे:-- शिष्यः पुत्रायते = शिष्य पुत्र के समान व्यवहार करता है; गोपः कृष्णायते = गोप कृष्ण के समान व्यवहार करता है। विद्वायते - वह विद्वान के सदृश व्यवहार करता है। प्रश्नयति = वह प्रश्न करता है; मिश्रयति=मिलावट करता है; लवणयति षह खारा जैसा करता है । वह लवण रूप बनाता है. सुनार वह पुत्र जैसा व्यवहार करता है; पितरति वह पिता जैसा व्यवहार करता है । इसी प्रकार से गुणाधन्तं, शेषाय से, हुमायते दुःखायते सुखायते' इत्यादि सैकड़ों नाम धातु रूप हैं। उक्त 'यङ ' और क्य' के स्थानीय प्रत्यय 'ब' का प्राकृत में लोप हो जाता है और सत्पश्चात प्राकृतीय फाल
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