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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित - orrrrrrrrrorisirrorkwor*************tosrriterarmeroornstrator बोधक प्रत्यय जोड़ दिये जाते हैं । उदाहरण इस प्रकार है:-अगुरुः गुरुः भवति-गुरूयति गरु आई-वह गुरु नहीं होते हुए भी गुरु बनता है; यह 'क्यच' का उदाहरण हुश्रा । क्या' का उदाहरण यों है:गुरुः इव पाचरति = गुवायते-गुरुपाद(वह गुरू नहीं होता हुश्रा भो) गुरु जैसा आचरण करना है। वृत्तिकार ने दो उदाहरण और दिये हैं, जो कि इस प्रकार है:-दमदमीयति-दमदमाइ-वह नगारा रूप बनता है; दमदमायते-दमदमाइ-वह नगारा जैसा शब्द करता है । लोहितीयति-लोहिसार-वह रक्त वर्ण पाला बनता है । लोहितायते-लोहियावह रक्त वर्णीय बनने की इच्छा करता है । इमा प्रकार से अन्य संज्ञाओं पर से बनने वाले धातुओं के रूपों को भी समझा लेना चाहिये । अंग्रेजी-भाषा में इसको 'Denominative' प्रकिया कथाimiliai-titrval प्रकिया कहा।
गुरुयति संस्कृत का वर्तमान कालीन प्रथम पुरुष का एकवचनान्त नाम धातु रूप से निर्मित क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप गरु अाइ होता है । इसमें मूत्र संख्या १-१.५ से पत्र में रहे हुए आदि वर्ण 'गु' के 'उ' को 'अ' की प्राप्ति; १-४ से 'क' में स्थित दोघ स्वर 'क' के स्थान पर हरव स्वर 'ड' की प्राप्ति; ३-१३८ से नाम-धातु-द्योतक प्रत्यय 'य' का लोप; ३-१५८ की वृत्त से लोप हुए 'यू' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' प्रत्यय के स्थान पर 'या' की प्राप्ति और ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरूष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुरुआड़ रूप सिद्ध हो जाता है ।
गुर्वायते (गुरु + आयते) संस्कृत का वर्तमान कालीन प्रथम पुरुष का एकवचनान्त नामधातु रूप से निर्मित क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप गरमाथइ होता है । इसमें सूत्र-संख्या १.१०७ से पत्र में रहे हुए श्रादि वर्ण 'गु' के 'उ' को 'श्र' की प्राप्ति; तत्पश्चात उत्तराध प्रत्ययात्मक पद 'आयते' में स्थित 'य' प्रत्यय का ३-१३८ से लोप और १-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय आत्मनेपदीय प्राप्तन्य प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृन में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर गुरुभाअइ रूप सिद्ध हो जाता है।
उमड़मीयति = संस्कृत का वर्तमानकालीन प्रथम पुरुष को एकवचनान्त नाम-धातु रूप से निर्मित क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप दमदमाइ होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३-१३० से नाम-धातु द्योतक प्रत्यय 'य' का लोप; ३-१५८ की वृत्ति से लोप हुए 'य' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' प्रत्यय के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति १-१० से पदस्थ वर्ण 'मी' में स्थित दीर्घ स्वर 'ई' का आगे प्रत्ययात्मक स्वर 'या' का सद्भाव होने से लोप; १-५ से लोप हुए स्वर 'ई' के पश्चात शेष रहे हुए इलन्त व्यञ्जन 'म' में आगे स्थित प्रत्ययामक दीर्घ स्वर 'या' को संधि; यों प्राप्त नाम-धातु रूप दमपमा में ३-१३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय परस्मैपदीय प्राप्तम्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में '' प्रत्यय की प्राप्ति होकर बमड़माइ रूप सिद्ध हो जाता है।