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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
ते (सर्वनाम) रूप को सिवि भूत्र-संख्या ३.५८ में की गई है। 'तुम (सर्वनाम' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४६ में की गई है।
'स्थः और स्थ' संस्कृत के वर्तमानकाल के द्वितीय पुरुष के कम से द्विवचनान्त तथा बचचनान्त परम्मैपदोय अकर्मक क्रियापद के रूप है। इनका प्राकृत रूप अस्थि होता है। इनमें सूत्र-संख्या ३-१४८ से दोनों रूपों के स्थान पर 'अस्थि' रूप सिद्ध हो जाता है ।
'तुम्हें' (सर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३.९१ में की गई है। 'अस्मि = अत्थि' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१४७ में की गई है। 'अहं' (सर्वनाम) रूप की रिद्धि सूत्र संख्या ३-१०५ में की गई है। 'स्मः ( और स्वः) = 'अस्थि' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१४७ में की गई है। 'अ' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३.१०f में को गई है । ३.१४८ ।।
णेरदेदावावे ।। ३-१४६ ॥ णः स्थाने अत् एन पाव भावे एते चत्वार प्रादेशा भवन्ति । दरिसइ । कारे । करावइ । करावे ॥ हासेइ । हसावइ । हसावेइ । उबसामेइ । उबसमावइ । उबसमावेइ ॥ बहुलाधिकारात् कचिदेन्नास्ति । जाणावेइ ।। क्वचिद् आवे नास्ति । पाएइ । भावेइ ।।
अर्थ:--इस सून से प्रारम्भ करके प्रागे १५३ मूत्र तक प्रेरणार्थक क्रिया का विवेचन किया जा रहा है। जहाँ पर किलो की प्रेरणा से कोई काम हुआ हो वहाँ प्रेरणा करने वाले की क्रिया को बताने के लिए प्रेरणार्थक क्रिया को प्रयोग होता है। संस्कृत भाषा में प्रेरणा अर्थ में धातु से परे 'णिच् = अय' प्रत्यय ओड़ा जाता है; इसलिये इस क्रिया को 'णिजन्त' भी कहते हैं । प्राकृत-भाषा में प्रेरणार्थक क्रिया का रूप बनाना हो तो प्राकृत धातु के मूल रूप में सर्व प्रथम संस्कृतीय पानध्य प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्रादेश-माप्त 'अत, एन, आव और श्रावे' प्रत्ययों में से कोई भी एक प्रत्यय जोड़ने से वह धातु प्रेरणार्थ कियादाली बल जायगी; तत्पश्चात प्रामांग रूप धातु मैं जिस काम का प्रत्यय जोड़ना चाहें उस काल का प्रत्यय जोड़ा जा सकता है। आदेश प्राप्त प्रत्यय 'श्रत और एस' में स्थित अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'त' को संज्ञा होकर, यह लोप हो जाता है । इस प्रकार किसी भी धातु में काल बोधक प्रत्ययों के पूर्व में 'श्र, र, श्राव और आवे' में से कोई भी एक णिजन्त बोधक अर्थात् प्रेरणार्थक प्रत्यय जोड़ने से जम धातु का अंग प्रेरक- अर्थ में तैयार हो जाता है। इस सम्बन्ध में विविध नियमों की