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* प्राकृत व्याकरण *
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अबकि द्वितीय द्वितीय रूपों में प्रेरणार्थक भाव में प्राप्तव्य प्रत्ययों के स्थान पर आदेश प्राप्त प्रत्यय 'त्रि' का सद्भाव प्रदर्शित किया गया है। भाव वाचक और कर्मणिवाचक उदाहरण इस प्रकार है: - कार्यकारी अइ करावी, कारिज्जइ और कराविज्जइससे कराया जाता है; हाप्यते = हासीअसावी, हाजिद और हसाविजइ = उससे हंसाया जाता है। इन उदाहरणों में भी अर्थात 'कारी अत्र, कारिज्जइ, हासीय और हासिज' में तो प्रेरणार्थक-भाव- प्रदर्शक प्रश्ययों का अभाव प्रद शिंत करते हुए भी प्रेरणार्थक भाव का सद्भाव प्रदर्शित किया गया है। जबकि शेष उदाहरणों में अर्थात् 'करावी, करादिजइ, हसावी और हसावित्र' में प्रेरणार्थक भाव-प्रदर्शक - प्रत्यय 'श्रत् एव, आव और श्रावे' के स्थान पर 'आणि प्रत्यय की आदेश प्राप्ति प्रदर्शित करते हुए प्रेरणार्थक-भाव का सद्भाव प्रस्तुत किया गया है। इस प्रकार अन्यत्र भी यह समझ लेना चाहिये कि प्राकृत भाषा में धातुओं से भूत-कुन्त-सम्बन्धी प्रत्यय 'त' और भाववाच्य कर्मणिवाच्य प्रत्ययों के परे रहने पर णिजन्त- बोधक प्रत्ययों का या तो लोप हो जायगा अथवा इन प्रत्ययों के स्थान पर 'आवि' प्रत्यय की कल्पिक रूप से आदेश हो जायगी ।
और रात्रि होते हैं ।
कारितम् संस्कृत का भूतकृदन्तीय रूप है। इसके प्राकृत रूप कारि इनमें से प्रथम रूप में सूत्र - संख्या ३-२५३ मेनू पात घातु 'कर' वियर 'छ' ले स्थान पर आगे भूत कृदन्तीव प्रत्यय का सद्भाव होने से ३-१५२ द्वारा प्रेरणार्थक भाव प्रदर्शक प्रत्यय का लोप हो जाने से 'आ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्तो' फार' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भूत'कृइन्त बोचक प्रत्षय 'त' का सद्भाव होने से 'इ' को प्राप्तिः ४-४४६ से प्राप्तमि 'कारि' में भूत कृदन्तबाचक संस्कृतिीय प्रामध्य प्रत्यय 'त' के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त मध्यय 'त' में से हलन्त व्यञ्जन 'स्' का लोप ३.२५ से प्राप्तांग 'कारिय' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' को पूर्व वर्ण पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर भून कृदन्तीम प्रेरणार्थक-भाव-सूचक प्रथमान्त एकवच नी प्राकृस पद कारि सिद्ध हो जाता है ।
कराविश्रं में सूत्र संख्या ३-१५६ से मूल कृत धातु 'कर' में प्रेरणार्थक भाव-प्रदर्शक प्रत्यय 'आवि' की प्राप्ति; और शेष साधनिका प्रथम रूप के समान हो प्राप्त होकर द्वितीय रूप करावि भो सिद्ध हो जाता है ।
हातिम् संस्कृत हृदन्त का रूप है । इसके प्राकृत रूप हासिश्रं और हमावि होते हैं। इनमें प्रथम रूप हासि में सूत्र संख्या ३-१५३ से मूल प्राकृत धातु 'हस' में स्थित आदि स्वर 'अ' के स्थान पर आगे भूत-कुम्तीय प्रत्यय का सदुभाव होने से ३-१५२ द्वारा प्रेरणार्थक भाव-प्रदर्शक प्रत्यय का सोप हो जाने से 'आ' की प्राप्तिः ३.९५६ से प्राप्तांग 'हास' में स्थित अन्त्य स्वर 'छा' के स्थान पर आगे भूतक्वदन्त-वाचक प्रत्यन्न 'त' का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति ४०४४६ से प्राप्तांग 'हासि' में भूत • कुदन्त