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प्राकृत व्याकरण *
[ २८१ ] 000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000
हासतम संस्कृत कृदन्तीय रूप है। इसका प्राकृत रूप हसिनं होता है । इसमें सूत्र-संख्या ५-१७७ से हलन्त-व्यञ्जन 'त' का लोप; ३.५ से द्वितीया विभक्ति एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में 'म्' प्रत्यय का प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त-रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्वचर्ण 'अ' पर अनुस्वार को प्राप्त होकर हसि रूप सिद्ध हो जाता है।
पठितम् संस्कृत भूत-कदन्तीय रूप का प्राकृत रूप पढिरं होता है। इसमें सूत्र संख्या १-१६६ से '' व्यञ्जन के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; १-१७७ से हलन्त व्यञ्जन 'त्' का लोप; ३.५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्राप्लव्य प्रत्यय 'अम्' के स्थान पर प्राकृत में म्' प्राय की प्राप्ति और १-२३ से प्राप्त प्रत्यय म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्रत होकर पाहि सप सिद्ध हो आता है।
नामतम् माकत का भूत-कदमी का है। इसका प्राकृत-रूप नविश्र होता है । इसमें सूत्र संख्या ४-२२६ से मूल संस्कृत धातु 'नम्' में स्थित अन्त्य घ्यञ्जन म्' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति; -२३६ से प्राप्तांग 'नव' में विकरण प्रत्यय 'अ' को प्राप्ति; ३-५५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'श्र' के स्थान पर 'इ' की प्राप्ति; ४-४४: से भूत-कृदन्त-अर्थ में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय को प्राप्ति; १.१७७ ' से प्राप्त प्रत्यय 'स' में से हलन्त 'स' का लोप; ३-५ से प्राप्तांग 'नवित्र' में द्वितीय विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्रम्' के स्थान पर
'म' प्रत्यय की प्राप्ति .३ से प्राप्त प्रत्यय 'म' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'घ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर नपि रूप सिद्ध हो जाता है।
'हासि' प्रेरणार्थक रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ३-१47 में की गई है।
पाठितम् संस्कृत का प्रेरणार्थक रूप है। इसका प्राकृत रूप पाढिरं होता है । इसमें सूत्र-संख्या P-TEL से मूल संस्कृत-धातु 'पठ' में स्थित हलम्त व्यञ्जन 'ठ' के स्थान पर 'द' को प्राप्ति; ३-१५३ से प्राप्त 'पद' स्थित प्रादि स्वर 'अ' के स्थान पर श्रागे प्रेरणार्थक प्रत्यय का सद्भाव होकर भूतकृदन्तीय अर्थक प्रत्यय का योग होने से जस प्रेरणार्थक प्रत्यय का लोप होने के कारण से 'श्रा' की प्राप्ति ४-२३६ से प्राप्तांग हलन्त 'पाद में विकरण प्रत्यय 'भ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे भूत-कृदन्तीय प्रत्यय का योग होने के कारण से 'इ' की प्राप्ति; ४-४४८ से संस्कृत में प्राप्तव्य भूत-दन्त-अर्थक प्रत्यय 'स' के समान ही प्राकृत में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति १-१८७ से भूतकदन्तीय प्रत्यय 'स' में हलन्त व्यसन 'स' का लोप, ३-५ प्राप्तांग 'पाढिश्र' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्रम्' के स्थान प्राकत में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १.२३ से प्राप्त प्रत्यय 'म्' के स्थान पर पूर्व वर्ण 'अ' पर अनुस्वार की प्राप्ति होकर प्रेरणार्थक पाविभ हप सिद्ध हो जाता है।
गम रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-९७ में की गई है।