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* प्राकृत व्याकरण *
[ २६५ ] +00000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000000001
तोसिअं में सूत्र संख्या १-२६. से मू। संस्कृत धातु तोप में स्थित 'प' के स्थान पर 'स' की प्रारित, ३-१५० से प्रेरणार्थक-मात्र का पदभाव होने पर भी प्रेरणार्थक-प्रत्यय 'अवि' का वैकल्पिक रूप से अभाव; ४-२३१ से प्राकृतीय प्राप्त हलन्त रूप तो में विकरण प्रत्यय 'अ' की प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त विकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर श्रागे भूत-कृदन्त अर्थक प्रत्यय 'त' का सद्भाव होने से 'इ' को प्राप्ति, ४-१४८ से भूत-कृदन्त-अर्थ में संस्कृत के समान ही पाक़त में भी 'त' प्रत्यय की प्राप्ति; १-१७७ से प्राप्त 'त' वर्ग में से हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोया यों प्राप्त रूप 'तोसिअ' में शेष सावनिका प्रथम रूप के समान ही सूत्र-संख्या ३-२५ और १-२३ से प्राप्त होकर द्वितीय रूप तोसि भी सिद्ध हो जाता है । ३-१५०||
भ्रमे राडो वा ।। ३-१५१॥
अमे; परस्य णेराड श्रादेशो वा भवति ॥ भमाडइ । भमाडेइ । पक्षे । भामेइ । भमावइ । ममावे ।।
___ अर्थ:-संस्कृत भाषा की धातु भ्रम् के प्राकृत रूप भम् में णिजन्त अर्थात् प्रेरणार्थक-भाव के अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तथ्य प्रेरणार्थक प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'पाड' प्रत्यय को श्रादेश-प्राप्ति हुआ करती है। उदाहरण इस प्रकार है:-नाम तभमाई अथवा भाडेइ-वह धुमाता है । कल्पिक-पज का सद्भाव होने से प्रेरगार्थ क-भाव में जहां भम् धातु में 'अाउ' प्रत्यय का अमाव होगा वहाँ पर सूत्र-संख्या ३.१४५ के अनुपार प्रेरणाय क-भाव में प्रत, पत, याव और भावे प्रत्ययों में से किसी भी एक प्रत्यय का सद्भाव होगा। जैम-भ्रामयति=भामइ, भामेइ. भमावद और भमा
इ- वह घुमाता है । यो प्राकृत धातु 'भम्' के प्रेरणाक-माव में छः रूपों का सद्भाव होता है। तत्पश्चात्त इष्ट काल-बोधक प्रत्ययों को संबोजना होती है।
धामयत्ति संस्कृत प्रेरणार्थक-किया का रूप है। इसके प्राकृत रूप भमाद, भमाडे, भामद, भामेइ, भपावइ और भभावेद होते हैं। इनमें से प्रथम दो रूपों में सूत्र-संखया २. से मूल संस्कृत-धातु 'धम्' में स्थित 'र' व्यञ्जन का लाप; ३-१५१ से प्राप्तांग भम्' में प्रेरणार्थक-भाव में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'अय' के स्थान पर प्राकृत में 'पाड' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; ३.२५८ से द्वितीय रूप में प्राप्त प्रत्यय 'बार्ड में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' के स्थान पर आगे वर्तमानकाल के प्रथम पुरुप के एकवचन बोधक प्रत्यय का सदभाव होने से वैकल्पिक रूप से 'ए' की प्राप्ति; यो प्राप्तांग 'भमाड और भमाडे में सूत्र संख्या ३-१३६ से वर्तमानकाल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'ति' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' की प्राप्ति होकर भमाडद और भमाडेइ प्रेरणार्थक रूप सिद्ध हो जाते हैं ।