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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *.
होने से लोप; तत्पश्चात प्राप्तांग-धातु 'हस्' में ३-१४३ से वर्तमान काल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन
और बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'यस' तथा 'थ' के स्थान पर प्राकृत में 'इस्या' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रश्रम रूप हसिस्था सिद्ध हो जाना है।
_ द्वितीय रूप हप्तह में सूत्र संख्या ३.१४३ से हम धातु में वर्तमान काल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन और बहुववन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'यस' और 'थ' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति हाकर द्वितीय रूप हसह भी सिद्ध हो जाता है।
पेथे और वेपध्ये संस्कृत के वर्तमान काल के द्वितीय पुरुष के क्रम से द्विवचन और बहुवचन के आत्मनेपदीय अकर्मक क्रियापद के रूप हैं। इन प्राकृत रूप दोनों वचनों में समान रूप से हो येविस्था
और वेवह होते हैं। इनमें सूत्र संख्या १-२३१ से 'प' व्यञ्जन के स्थान पर व' को प्राप्ति; तत्पश्चात प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन का प्रयोग करने की श्रादेश प्राप्तिा १-१० से प्राप्त प्राकृत-धातु वेव' में स्थित अन्त्य स्वरअ'के श्रागे प्राप्तव्य प्रत्यय 'इत्था की'का सद्भाव होने से लोप; तत्पश्चात प्राप्तां-धातु 'वे' में ३-१४३ से वर्तमान फाल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन में तथा पहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तब्ध प्रत्यय 'इथे' और ' के स्थान पर प्राकृत में इत्या प्रत्यय प्रारित होकर प्रथम रूप घेविस्था सिद्ध हो जाता है।
द्विनीय रूप वेवह में नव-संख्या ३-१४३ से प्राकृन में प्राप्त धातु वेव में वर्तमान काल के द्वितीय पुरुष के द्विवचन में और बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'इथे' और 'धवे' के स्थान पर प्राकृत में 'ह' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्विनीय रूप वेवह भी सिद्ध हो जाता है।
'ज' (मय नाम) रुप की सिद्धि सूत्र-संख्या १-२४ में की गई है । 'ने (मर्वनाम) रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.९९ में की गई है।
रोचते संस्कृत का वर्तमान काल का प्रथम पुरुष को पकवचनान्त आत्मनेपदीय अकर्म के क्रियापद का रूप है। इसका (ोष) प्राकून का रोहस्था है। इसमें सूत्र संख्या १-६४७ से 'च' का नोप; १.१० से लोप हुए 'च' के पश्चात् शेष रहे हर स्वर 'अ' के श्रागे प्रत्ययानक 'इत्या' की 'इ' का माव होने से लाप; ३-१-४३ की वृत्ति से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृत में प्रामण्य आत्मनेपदीय प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में द्वितीय पुरुष बांध क बहुवचनीय प्रत्यय 'इत्थी' की प्राप्ति होकर (श्राप) प्राकृतोय कर रोइत्या सिद्ध हो जाता है । ३-१४३ ।।
तृतीयस्य मो-मु-मा: ॥ ३-१४४ ॥ त्यादीनां परस्मैपदात्मनेपदानां तृतीयस्य त्रयस्प समन्धितो बहुषु वर्तमानस्य