________________
* प्रांकृत व्याकरण 2
६२४१] •subeddistoresdoktro000000000000kshrookersonotekkootobort+0000000001
जमदमायते संस्कृत का वतमान कालोन प्रथम पुरुषका एक वचनान्त नाम-धातु रूप से निर्मित थापन का रूप है। इसका प्राकृत रूप इमदमाह होना है। इसमें सुत्र-संख्या ३-१३८ से नाम-धातु योतक प्रत्यय "य" का लोप और ३-१२९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृतीयः श्रात्मनेपदीय प्राप्तव्य प्रत्यय ते" के स्थान पर प्राकृत में "" प्रत्यय की प्रानि होकर महमाई रूप सिद्ध हो जाता है।
लोहितीमा त पनाम कालीन यम पुरुष का एक अचान्न नाम-धातु रूप से निर्मिन क्रियापद का रूप है । इसका प्राकृत रूप लोहियाइ होता है । इस में सूत्र-संख्या ३-१३८ से नामधातु द्योतक प्रत्यय "य" का लोप; ३-१५८ को वृत्ति से लोप हुए "य" के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' प्रत्यय के स्थान पर 'श्रा" की प्राप्ति; १-१७७ से "तु" व्यजन का जोप; १-१० से लोप हुए "त" ध्यान के पश्चात् शेष रहे हुए दीघस्वर "ई" का अागे माम-धातु द्योतक प्रत्यय "अ" का सद्भाव होने से लोप एवं प्राम रूप "लोहिया" में ३-१३६ सं वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय परस्मैपदीय प्रापन्य प्रत्यय "fa" के स्थान पर प्राकृत में "" प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप लोहिभाइ सिब हो जाता है।
लोहितायते संस्कृत का वर्तमानकालीन प्रथम पुरुष का एकवचनान्त नाम-धातु-रूप से निर्मित क्रियापद का रूप है। इसका प्राकृत-रूप लोहियामा होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-२७७ से "तु' का लोप; ३-१३८ से नाम-धातु-योतक प्रत्यय “य्" का लोप, और ३-१३९ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एक वचन में संस्कृतीय आत्मने पदीय मानव्य प्रत्यय "ते" के स्थान पर प्राकृत में "इ" प्रत्यय की प्राप्ति हो कर प्राकृत रूप लोहियाअइ सिद्ध हो जाता है। ३-१३८ ।
त्यादिनामायत्रयस्याद्यस्येचेचौ ॥३-१३६ ॥ त्यादीनां विभक्तीनां परस्मैपदानामात्मनेपदानां च सम्बन्धिनः प्रथमत्रयस्य यदायं वचनं तम्य स्थाने इच् एच इत्येताबादेशौ भवतः ।। हसइ । इसए । वेवइ । वेवए । चकारी इचेचः (४-३१८) इत्यत्र विशेषणार्थी।
अर्थ:-संस्कृत-भाषा में धातुएँ दश प्रकार की होती है; जो कि 'गण' रूप से बोली जाती है। वैसा गण-भेद प्राकृत-भाषा में नहीं पाया जाता है। शत-भाषा में तो सभी धातुएँ एक ही प्रकार की पाई जाती है, जो कि मुख्यत: स्वसन्त ही होती है; थोड़ी सी जो भी यजमान्न है; उन में भी सूत्र-संख्या ४-१३६ से अन्त्य हलन्त व्यकजन में विकरण प्रत्यय "अ' की संयोजना करके उन्हें अकारान्त रूप में परिणत कर दिया जाता है । इस प्रकार प्राकृल-भाषा में सभी घांवर स्वरान्त ही एवं एक हो प्रकार का पाई जाती है। संस्कृत-भाषा में "परस्मै पद और मारमने १६" रूप से प्रत्ययों में तथा धातुओं में जैसा