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* प्राकृत व्याकरा *
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दुवे दोगिण वेरिण च जस्-शसा ॥ ३-१२० ॥ जस् शसम्यां सहितस्य द्वेः स्थाने दुवे दोषिण वेएिण इत्येते दो वे इत्येतो च श्रादेशा च गन्ति । दुधे दागिण वेरिण दो चे ठिा पेच्छ वा । हस्यः संयोगे (१-८४) इति हस्थत्वे दुषिण विरिण
अर्थ:-- संस्कृत संख्या-पाचक शब्द 'द्वि के प्राकत-रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय 'जस और द्वितीया विभक्ति के पहुवचन के प्रत्यय शस' की प्राप्ति होने पर मूल शब्द द्वि' और प्रत्यय शेने के स्थान पर दोनों ही विभक्तियों में समान रूप से और नाम से पाँच प्रादश-रूपों का प्राप्ति होती है। वे पादेश प्राप्त पौना रूप क्रम में इस प्रकार हैं:-(प्रथमा) द्वौ दुवे, दोरिण. वेरिण, दो और व । (द्वितीया) द्वौ - दुष, दागिण, बारण, दो और वे । प्रथमा का उदाहरण इस प्रकार है:-द्वी स्थिती दुवे, दोएिण. वेरिण, दो, चे ठिश्री अर्थात दो ठहरे हुए हैं। द्वितीया विभक्ति का उदाहरण:-द्वौ पश्यन्दुवे, दोरिण पिण, दो, व पेच्छ अर्थात दो की देखो ! सूत्र संख्या १.८४ में ऐपा विधान प्रदर्शिन किया गया है कि संस्कृत से प्रान प्रकर-रूपान्तर में यदि दीघ वर के आगे संयुक्त व्यम्जन की प्राप्ति हो जाय तो वह दीर्घ स्वर स्वावर में परिणत हो जाया करता है; तदनुसार इम सूत्र में प्राप्त दोरिण और वेरिण' में दीघम्वर 'श्री' के स्थान पर हम्ब स्वर '४' की प्राप्ति तथा दीर्घ स्वर 'ए' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति वैकल्पिक रूप से होकर उक्त पाँच प्रदेश-प्राप्न रूपों के अतिरिक्त 'हो' के प्राकृत रूपान्तर दो और बन जाते है। जो कि इस प्रकार हैं:-(दौ =) दुरिण और विरिण । यो प्रथमा और द्विनीया में 'हो' के कुल मात प्राकृत रूप हा जाते हैं।
है मकत प्रथमा द्विवचनात और द्वितीया द्विवचनान्न संख्यात्मक सर्वनाम (श्री विशेषण) रूप है । इपफ प्राकृत रूप मात हास है.-सुधे, दोरिण, वैरिया, दो, थे. हुरिण और विरिण । इन में से प्रथम पाँच रूपों में सूत्र-संख्या ३.१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति और ३.१२० में प्रथमा द्वितीया कंबहुवचन में संस्कृनीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस' और 'शस' की प्राप्ति होने पर 'मूल शरद
और प्रत्यय दोनों के स्थान पर उक्न पाँचों रूपों को क्रम में श्रादेश-प्राप्ति होकर कम से इन पाँचौ रूपों 'दुवे, दोषिण, वणि दो और ' का पिद्धि हो जाती है। शेष दो रूपों में सूत्र-संरख्या १-८१ से पूर्वोकन द्वितीय तृतीय रूपों में स्थित 'श्री' और ए' स्वरों के स्थान पर कम से हस्वस्वर 'उ' और 'इ' की प्राप्ति होकर बढे सातवें म्प 'दुषिम' और 'विषिष' की भी सिद्धि हो जाती है ।
स्थिती संस्कृत रूप है। इसका प्राकन रूप ठिा होता है। इसमें सूत्र संख्या ४-१६ से मूल संस्कृप्त धातु 'स्था - सिष्ठ के स्थान पर प्राकृत में 'ठा' अंग रूप की श्रावेश-प्राप्ति; ३-१५६ से प्राप्त धात 'सी' में स्थित अन्त्य स्वर 'मा' के स्थान पर 'आगे भूत कन्दष्ट से सम्बन्धित प्रत्यय त - त' का