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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित * 000000000000orernoosamsterdasterstirernoredowworrentroottoonrooto...
वध शब्दाव परस्य तादर्यड डिद् प्राइः षष्ठी च वा भवति ।। वहाइ बहस वहाय । वधार्थमित्यर्थः ॥
अर्थ:-संस्कृत में 'वध' एक शब्द है; जिसका प्राकृत रूप 'वह' होता है । इस 'वह' शब्द के लिये चतुर्थी के एकवचन में 'तादर्य' = 'उसके लिये' इस अर्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'आय' की प्राप्ति के अतिरिक्त षष्ठी विभक्ति के एकवचन में प्राकृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'स्म' के साथ साथ एक और प्रत्यय 'प्राइ' की प्राप्ति भी वैकल्पिक रूप से हुआ करती है। यों 'वधार्थम्' के तोन रूप प्राकृत भाषा में बन जाया करता है। जो किस प्रकार:-अवार्थम-सहा, पहन, वहाय प्रधान वर केलिये: मारने के लिये । यह ध्यान में रहे कि इन रूगों को यह स्थिति वैकल्पिक है; जैसा कि सूत्र में और वृत्ति में 'या' अव्यय का उल्लेख करके सूचित किया गया है।
बधार्थम् संस्कृत दादथ्य-सूच 6 यतु” विभक्ति का एक प्रान्त का है। इस पावन हा वाई, वहम्स और वहाय होते हैं। इनमें से पथम रूप में सूत्र संख्या १-१-७ से मन संस्कृत शब्द 'वर' में स्थित 'ध' के स्थान पर 'ह' की प्राति; ३-२३३ से चतुर्थी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रामस्य प्रत्यय 'स। के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'आई' प्रत्यय की आदेश-प्राप्ति; १-१० से प्राकृतीय पान शब्द वह में स्थित अन्त्य म्बर 'अ' के आगे 'श्राइ' प्रत्यय का 'मा' रहने से लोग तत्पश्चात् १-५ से प्राप्त रूप 'यह + प्राइ' में संधि होकर प्रथम रूप पहाइ सिद्ध हो जाता है । द्वितीय रूप कहस्म' में सूत्र-संख्या ३-१३१ से चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर पाठी विभक्ति के प्रयोग करने की प्रादेश प्ति तानुमार ३.१० से संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय " - अस् के स्थान पर प्राकन में 'स' को प्राप्ति होकर द्वितीय रूप वहस्प्त की सिद्धि हो जाती है । तृतीय रूप वहाय में सूत्र-संख्या ३-१३२ मे चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय और = प्राय' को प्राकृत में वैकल्पिक रूप से प्राप्ति; तत्पश्चात १-५ से संधि होकर तृतीय रूप वहाय सिद्ध हो जाता है। १३३ ॥
क्वचिद् द्वितीयादेः ॥३-१३४ ॥ द्वितीयादीनां विभक्तीनां स्थाने षष्ठो भवति क्वचित् ॥ भीमा-धरस्स चन्दे । तिस्सा मुहस्स गरिमो । अत्र द्वितीयायाः षष्ठी ।। धणस्स लद्धो । धनेन लब्ध इत्यर्थः । चिरस्स मुका। चिरेण मुक्त त्यर्थः । तेसिमेअमणाइएणं । तैरेतदनाचरितम् । अत्र तृतीयायाः ॥ चोरस्स बीहइ । चोराद्विभेतीत्यर्थः । इअराई जाण लहु अक्खाराइं पायन्ति मिल सहिआण | पादान्तेन सहितेभ्य इतराणीति । अत्र पञ्चम्याः ॥ पिट्ठीएँ केस-मारो। अत्र सप्तम्या: ।।
___ अर्थः-प्राकृत भाषा में कभी कभी अनियमित रूप से उपयुक्त विभक्तियों के स्थान पर किसी अन्य विभक्ति का प्रयोग भी हो जाया करता है । तदनुसार द्वितीया. तृतीया, पञ्चमी और सप्तमी विभक्ति