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# प्रियोदय हिन्ही व्याख्या सहित *
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से प्राप्त त्रिकरण प्रत्यय 'अ' के स्थान पर आगे तृतीया पुरुष-बांधक बहुवचनान्त प्रत्यय का सद्भाव होने से 'इ' की प्राप्ति और ३-१४४ से प्राप्त धातु रूप 'भोर' में वर्तमान कालान तृतीय पुरुष-बोधक बहुचान् प्रत्यय 'मो' की प्राप्ति हाकर भरिमो रूप सिद्ध हो जाता है ।
धनेन संस्कृत तृतीया विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसक लिंग रूप है। इसका प्राकृत रूप aण है। इसमें सूत्र संख्या ३ १३४ से तृनाया विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति के प्रयोग करने की आदेश प्राप्ति १ २.८ से मूल संस्कृत शब्द धन' में स्थित 'न' के स्थान पर 'ए' की प्राप्ति और ३-१० से प्राप्त प्राकृत रूप व में संस्कृतीय प्राप्तभ्य प्रत्यय 'इम्=असू' के स्थान पर प्राकृत में 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर धणस्स रूप की सिद्धि हो जाती है ।
aar: संस्कृत प्रथमा विभक्ति के एकवचनान्त विशेषण का रूप है। इसका प्राकृत रूप लखी होता है। इसमें सूत्र संख्या २७६ से हलन्त व्यञ्जन 'ब' का लाप; २००६ से लोप हुए 'ब' के पश्चात शेष रहे हुए च' को द्वित्य घध की प्राप्ति २१० से प्राप्त पूर्व 'ध' के स्थान पर 'दू' की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्त प्राकृत रूप 'लद्ध' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संकृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' कं स्थान पर प्राकृत में 'डोश्रो प्रत्यय की प्राप्ति एवं प्राप्त प्रत्यय जो' में 'ड' की इत्संज्ञा होने से प्राप्त प्राकृत शब्द 'लय' में स्थित अन्य स्वर 'अ' का इत्संज्ञात्मक लोप होकर तत्पश्चात् शेष प्रत्यय रूप 'ओ' का प्राप्त हलन्त शब्द 'लद्ध' में संध्यात्मक समावेश होकर प्राकृत रूप लद्धी सिद्ध हो आता है ।
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विरण संस्कृत तृतीया विभक्ति का एकवचनान्त नपुंसकलिंग रूप है इसका प्राकृत रूप चिरस् है । इसमें सूत्र संख्या ३-१३४ से तृतीया विभक्ति के स्थान पर पछी विभक्ति के प्रयोग करने की श्रदेश वाप्ति; तदनुसार २०१० से मूल शब्द विर में पष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय छन् = अस' के स्थान पर प्राकृत 'स्व' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्राकृत रूप चिरस्स सिद्ध हो जाता है ।
मुक्ता संस्कृत प्रथमा विभक्ति का एकवचनान्त स्त्रीलिंग विशेषण का रूप है। इसका प्राकृत रूप सुक्का होता है। इसमें सूत्र संख्या २०७७ से 'तू' का लोप २८६ से लोग हुए 'तू' के पश्चात् शेष रहें हुए 'कू' को द्विम्ब 'कक् की प्राप्ति और ३-१६ से प्रथमा विभक्ति के एकत्रचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत शब्दाभ्य स्वर को ना की प्राप्ति होने से मूल प्राकृत शब्द 'मुक्ता' में स्थित अन्य दीर्घ स्वर 'आ' को यथास्थिति की हो जाता है ।
प्राप्ति होकर सुक्का रूप सिद्ध हो
'सि' रूप को मिद्धि सूत्र संख्या ३-८१ में की गई है।
'ए' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या ६-८५ में की गई है।