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* प्राकृत व्याकरण *
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तादर्थ्य कै ; ॥ ३-१३२ ॥ तादयविहितस्य श्चतुर्येकवचनस्य स्थाने षष्ठी वा भवति ॥ देवस्म । देवाय । देवार्थमित्यर्थः ॥ रिति किम् । देवाण ।।
अर्थ:- तादी प्रथात उसके लिये अथवा उपकार्य उपकारक अर्थ में प्रयुक्त को जाने वाली चतुर्थी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रारम्य प्रत्यय 'ए' के स्थानीय संस्कृतीय रूप 'आय' की प्राप्ति प्राकृन शब्दों में वैकल्पिक रूप से हुआ करती है । तानुसार प्राकृत-शब्दों में चतुर्थी विभक्ति एकवचन में कभी षष्ठीविभक्ति के एकवचन की प्रामि होती है तो कभी संसनीय चतुर्थी विमलेन के ममान ही 'आय' प्रत्यय की प्रानि भो हुप्रा करता है । परन्तु मुख्यता और अधिकांशतः प्राकन-शब्दो में चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठो विभक्ति के एकवचन के प्रत्यय की ही प्रालि होठो है । उदाहरण यों है:-देवार्थमदेवाय अथवा देवस्स अर्थात देवता के लिये ।
प्रश्न:-जन मूत्र में चतुर्थी विभक्ति के एव वन में प्रत्यय 'क' का उल्लेख क्यों किया गया है ?
उत्तर:-क्यों कि चतुर्थी विभक्ति में दो वचन होते हैं । एकवचन और बडववन, तनुपार प्राकृत शब्दों में केवल चाय विभक्ति के एकवचन में ही वैकल्पिक रूप से संस्कृतीय प्रामध्य प्रत्यय 'पाय' की प्राप्ति होती है, न कि संस्कृतीय बहुवचनात्मक प्राप्तष्य प्रत्यय 'भ्यस' की बहुवचन में तो षष्ठीविभक्ति में प्राप्तव्य प्राकृत प्रत्यय की हो प्राप्ति होती है । इस अन्तर को प्रदर्शित करने के लिये ही हे' प्रत्यय को सूचना मूल-सूत्र में प्रदान की गई है। उदाहरण इस प्रकार है:-देवेभ्यःदेशण अथान देवताओं के लिये । यहाँ पर 'देवाण' में 'ण' प्रत्यय षष्ठी बहुववन का है; जोकि चतुर्थी विभक्ति के बहुवचन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । यों यह विधान निर्धारित किया गया है कि प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति के बहुवचन में और षष्ठीविभक्ति के बहुवचन में समान रूप से हो प्राकृत प्रत्यय की प्राप्ति हुओ करती है। अन्तर है तो केवल एकवचन में ही है और यह भी वैकल्पिक रूप से है । नित्य रूप से नहीं ।
वार्थम. संस्कृत तादर्श्व-सूचक चतुर्थी विभक्ति का एकवचनान्त रूप है। इसके प्राकृत रूप देवस्ल और नेवाय होते हैं । इनमें से प्रथम रूप देवास की सिद्धि सूत्र-संख्या ३.१३१ में को गई है। द्वितीय रूप में सूत्र-संख्या ३-१३३ से संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय == पाय' की प्राप्ति होकर देवाय रूप सिद्ध हो जाता है । देवाण' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या ३-१३१ में की गई है। १३२ ॥
वधाड्डाइश्च वा ॥ ३-१३३ ॥