________________
* प्राकृत व्याकरण *
[२२५ ] .new.commanderstoorrearrowrwww.ressdesortoisornstoroorkersonsoon
से लोप हुए द् व्यञ्जन के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' स्वर के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के प्रयोग की प्रादेश-माप्ति; ३-१२ से प्राप्त शब्द 'पाय' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर प्रथमा-द्वितीया-विभक्ति के बहुववन के प्रत्यय का सद्भाव होने से दोघ स्वर 'या' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा तथा द्वितीया विभक्ति के द्विवचन में कम से संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'श्री' तथा भौट के स्थान पर प्राकसमें ३ १३० के निर्देश से आदेश प्राप्त प्रत्यय 'जस-शस्' का लोप होकर पाया रूप सिद्ध हो जाता है।
स्तनको सस्कृत की प्रथमा एवं बिताया विमान के द्विवचन का पुल्जिम रूप है । इसका प्राकृत रूप थणया होता है। इसमें सूत्र संख्या-२-१५ से 'स्त' के स्थान पर 'थ' की प्राप्ति; १-२२८ से 'न' के स्थान पर 'ण' की प्राप्ति; १-१७७ से स्वार्थक प्रत्यय 'क' का लोप; १-१८० से लोप हुए 'क' व्यजन के पश्चात शेष रहे हुए 'या' में स्थित 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; ३-१३० मे द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के प्रयोग की आदेश पारित ३-१२ से मन संस्कृत शब्द 'स्तनक' में प्राप्त प्राकृत शब्द 'यागय में स्थित अन्य ह्रस्व घर 'अ' के स्थान पर आगे प्रथमा-द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्यय का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'आ' की प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के द्विवचन में कम से संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'औ' एवं 'प्रौट' के स्थान पर प्राकृत में ३-१६० के निर्देश से आदेश प्राप्त प्रत्यय 'जस-शस' का लोप होकर थणया रूप सिद्ध हो जाता है।
नयने संस्कृत की प्रथमा एवं द्वितीया विभक्ति के द्विवचन का नपुसकलिंग रूप है ! इप्स का प्राकृत रूप नयणा होता है । इसमें सूत्र संख्या १२२८ से मूल संस्कृत शब्द 'नयम' में स्थित द्वितीय 'न' के स्थान पर 'ण' की प्रानि; ३३ से प्राकृन में पान शब्द 'नयण को नपुंसकलिंगस्व से पुल्लिगव की प्राप्ति ३.१३० से द्विवचन के स्थान पर बहुवचन के प्रयोग को श्रादेश-प्रामिः ३-१२ से प्राम प्राकृत शब्द 'नयण' में स्थित अन्त्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर आगे प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन के प्रत्ययों का सद्भाव होने से दीर्घ स्वर 'श्री' की प्राप्ति और ३-४ से पथमा एवं द्वितीया विभक्ति के विवचन में कम से प्राप्तव्य नवुमकलिंग-बाधक प्रत्यय 'ई' के स्थान पर प्राकृन में ३-१३० के निर्देश से तया १-३३ के विधान से आदेश प्राप्त प्रत्यय 'जस-शा' का लोप होकर नयणा रूप सिद्ध हो जाता है । १३७ ।।
चतुर्थ्याः षष्ठी ॥ ३-१३१ ॥ चतुर्थ्याः स्थाने षष्ठी भवति ॥ मुणिरुस । मृणोण देह ॥ नमो देवस्म । देवाण ।।
अथ:-प्राकृत-भाषा में चतुर्थी विभक्ति बोधक प्रत्ययों का प्रभाव होने से चतुर्थी विभक्ति की संयोजना के लिये षष्ठी विभक्ति में प्रयुज्यमान प्रत्ययों का प्रयोग किया जाता है । तनुमार चतुर्थी के स्थान पर षष्ठी को सदुभाव होकर संदर्भ के अनुसार चतुर्थी का अर्थ निकाल लिया जाता है । उदाहरण इस प्रकार है:-मुनये मुणिस - मुनि के लिये । मुनिभ्यः ददते = मुगीण देइ - मुनियों के लिये