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* प्राकृत व्याकरण * 1664000000000000
शेष रहे हुए 'श' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; २००६ से 'स्त्री' में स्थित 'लू' का लोप; २-८६ से लोग हुए 'र' के पश्चात् शेष रहे हुन् 'सी' में स्थित 'सु' को द्विप' की प्राप्ति ३-६ से पष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'आम्' के स्थानीय रूप 'म्' के स्थान पर प्राकृत में 'ण' प्रत्यय की आदेश प्राप्ति और १२० से आदेश या प्रत्यय के अन्त में आगम रूप अनुस्वार' की प्राप्ति होकर रूप से जाता है।
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तीनाम् संस्कृत
बहुवचनात्
सर्वनाम ( और विशेषण ) रूप है। इसका प्रान रूप कइरहुं होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१७७ से 'त' का लोग १-८४ से लोप हुए 'त' के पश्चात शेष रहे हुए दीर्घ स्वर '५' के स्थान पर आगे बढी बहुवचन चोधक संयुक्त व्यञ्जनात्मक प्रत्यय का सद्भाव होने से' ह्रस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति और ३-१२३ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तस्य प्रत्यय 'आम्' के स्थानीय रूप नाम के स्थान पर प्राकृत में यह प्रत्यय का आदेश-प्राप्ति होकर प्राकृतीय रूप 'क' सिद्ध हो जाता है । ३-१२३ ॥
शेषे ऽ दन्तवत् ॥ ३-१२४ ॥
उपर्युक्तादन्यः शेषस्तत्र स्यादिविधिरदन्तवदनि दिश्यतं । येष्वाकाराद्यन्तेषु पूर्व कार्याणि नोक्ताणि तेषु जस् शसो लुक् ( ३ - ४ ) इत्यादिनि अदन्ताविकार विहितानि कार्याणि भवन्तीत्यर्थः ॥ तत्र जस् शसो लुक् इत्येतत् कार्यातिदेशः । माता गिरी गुरू सही बहू रेहन्ति पेच्छ वा ॥ श्रमांस्य ( ३-५ ) इत्येतत् कार्यातिदेशः । गिरिं गुरु सहि बहुंगा मणि खलपु' पेच्छ । दा-या मोर्णः : ( ३६ ) इत्येतत् कार्यातिदेशः । हाहाण कयं । मालाण गिरीण गुरुण सहीण हूण aj | टायास्तु । टोखा (३-२४) दा ङस् ङरदादिदेद्वा तु ङसे: (३-२६ ) इति विधिरुक्तः ।। मिसोहि हि हिं ( ३-७) इत्येतत् कार्यातिदेशः । मालाहि गिरीहि गुरूहि सही हूहि कथं । एवं सानुनासिकानुस्वारयोरपि ।। ङस् तो- दो-दु-हि- हिन्तो लुकः ( ३-८) इत्येतत् कार्यातिदेशः । मालाओ | मालाउ | मालाहिन्तो || बुद्धीओ | बुद्धीउ | बुद्धिहन्तो । धेओ घेउ | वेखूहिन्तो श्रमश्र | हि लुक तु प्रतिवेत्स्येते (३-२२७, १२६) । भ्यस् तो दी दु हि हिन्तो सुन्तो ( ३-६ ) इत्येतत् कार्यातिदेशः । माजाहिन्तो । मालासुन्तो । हिम्तु निषेत्स्यते (३-१२७) एवं गिरोहिन्तो इत्यादि । इसः सः (३-१० ) इत्येतत् कार्यातिदेशः । गिरिस | गुरुस | दहिस्स | सुहस्स || स्त्रियां तु टा-दस-ङ (३-२६ ) इत्यायुक्तम् ॥ म्सिङ (३११) इत्येतत् कार्यातिदेशः । गिरिम्मि | गुरुम्मि | दहिम्मि । महुम्मि | स्तुनिषेत्स्यते (३-१२८ )