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* प्राकृत व्याकरा *
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का संपादित होकर
उपरोक्त रोति से प्राप्त नय ही अंगों में सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में 'सु' कम से ये नत्र ही रूप 'अहं ममे, महेस, मझे, अम्मु, ममभू, मह्सु, मज्झतु, और अम्हासु सिद्ध हो जाते हैं । ३-११७ ।।
स्ती तृतीयादौ ॥ ३-११८ ॥
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त्रेः स्थानं ती इत्यादेशो भवति तृतीयादी ॥ तीहि कयं । तोहित आगश्री । तिवहं घ। ती ठिन्यं ॥
अर्थ:-- संस्कृत संख्या वाचक शब्द 'त्रि अर्थात् 'तीन' नित्य बहुत बनात्मक है इस 'त्रि' शब्द के एकवचन और द्विवचन में रूपों का निर्माण नहीं होता है। क्योंकि यह 'त्रि' शब्द उप संख्या का वाचक हैं; जो कि 'एक' और 'हो' से नित्य ही अधिक होते हैं। तृतीया विभक्ति पञ्चनो विभक्ति farक्त और सप्तम वक्त के बहुवचन में पर संकट शब्द 'त्र' के स्थान पर प्राकृत में 'ता' अंग रूप की आदेश नाति होती है, तत्पश्चात प्रानीय प्राभोगतो' में उक्त विभक्तियों के बहुबचन बोधक प्रत्ययों की संयोजना की जाती है। उदाहरण इस प्रकार हैं:
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तृतीया विभक्ति बहुवचनः - त्रिभिः कृतम् ही कयं अर्थात् तीन द्वारा किया गया है । पञ्चमी बहुवचनः---त्रिभ्यः भागतः तीहिन्ती आगधा अर्थात तीनों ( के पास ) से आया हुआ है। पष्ठी बहुवचनः -- त्र्याणाम् धनम् तिरहं धणं अर्थात् तीनों का धन और सप्तमां बहुवचनः त्रिषु स्थिनम् = ती ठिक अर्थात् तों पर स्थित है।
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त्रिभिः संस्कृत तृतीया बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम ( और विशेष ) रूप है। इसका प्राकृत पती होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-११६ से मूल संस्कृत शब्द 'त्र' के स्थान पर प्राकृत में 'ता' अंग रूप की श्रदेश-प्राप्ति और ३-७ से तृतीया विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'ती' में संस्कृतीय प्राच्य प्रत्यय 'भिस' के स्थान पर प्राकृत में 'हिं' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होकर ती िरूप सिद्ध हो जाता है।
कर्य रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१२६ में की गई है।
त्रिभ्यः संस्कृत पञ्चमी बहुवचनान्त संख्यात्मक सर्वनाम ( और विशेषण ) रूप है। इसका प्रकृत रूप तोहिन्तो होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-११८ से मूल संस्कृत शब्द 'त्रि' के स्थान पर प्राकृत में 'ती' अंग रूप की आवेश-प्रम और ३-६ से पञ्चमी विभक्ति के बहुवचन में प्राप्तांग 'ती' में संस्कृतीय व्य प्रत्ययस्यम्' के स्थान पर प्राकृत में 'हिन्तो' प्रत्यय को आदेश प्राप्ति होकर तीहिलो रूप सिद्ध हो जाता है।
'आओ' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १२०९ में की गई है !
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