________________
[ १६ ]
466696646+÷÷÷÷÷÷÷00066 $$$**$**$44$$$$4
* प्राकृत व्याकरण
$4440044
‘करोन' क्रियापद रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२९ में की गई है ।
'जे' नाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-६६ में की गई है।
'अहम्' संस्कृत प्रथमा एक वचनान्त त्रिलिंगाला सर्वनामरूप है। इसका प्राकृत रूप 'हे' होत हूँ । इसमें सूत्र-संख्या ३-१०५ से 'काम' के स्थान पर 'ह' रूप की देश-प्राप्ति होकर 'हं' रूप सिद्ध हो जाता है ।
वृद्धा संस्कृत विशेषण रूप है। इसका प्राकृत रूप विद्धा होता है। इसमें सत्र संख्या १-१२५ मे 'ऋ' के स्थान पर 'इ' को प्राप्ति ३-३२ एवं २-४ के निर्देश से प्राप्त रूप 'वृद्ध से विद्ध' में पुल्लिंगत्व मे स्त्रीलिंग के निर्माण हेतु स्त्रीलिंग-सूचक 'आ' प्रत्यय की प्राप्तिः ४-४४८ से प्राप्तांग 'चिद्धा' में आकारान्त स्त्रीलिंग रूप में संस्कृत प्रथमा विभक्ति के एक वचन में संस्कृत के समान ही प्राकृत में भी प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि=म' की शाप्ति और १-६६ प्राप्त प्रत्यय 'स' हलन्त होने से इस 'स्' प्रत्यय का लोप होकर प्रथमा-एक वचनार्थक स्त्रीलिंग रूप 'विद्या' सिद्ध हो जाता है ।
'' अथम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२ में की गई है।
प्रमृष्टः संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसका प्राकृत रूप पछुट्ट होता है। इसमें सूत्र संख्या २-५६ मे 'र' का लोप ४-२५८ से 'म्' को 'वह' रूप से निपाल प्राप्ति अर्थात् नियम का अभाव होने से आप स्थिति की प्राप्ति; १-१३१ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; २-३४ से '' के स्थान पर 'ठ' 'की प्राप्ति; वह से प्राप्त 'ठ' को द्वित्व 'ठ' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त पूर्व 'ठ' के स्थान पर 'ट' की प्राप्ति और १-११ से अन्य विसरा रूप हलन्त व्यखन का लोप होकर पस्छु रूप सिद्ध हो जाता है ।
अस्मि संस्कृत क्रियापद रूप हैं। इसका प्राकृत रूप 'म्मि' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-१४० से मूल संस्कृत धातु 'अम्' में वर्तमान काल के तृतीय पुरुष के एकवचनार्थ में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'मि' की संयोजना होने पर प्राप्त संस्कृतिीय रूप 'अरिम' के स्थान पर प्राकृत में 'हिम' रूप की यादेश प्राप्ति होकर 'म्मि ं रूप सिद्ध हो जाता है।
'अहं' सर्वनाम रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १४० में की गई है ।
'अहयें' सर्वनाम रूप की सिद्ध सूत्र संख्या १-१९९ में की गई है।
कृत प्रणामः संस्कृत विशेषणात्मक रूप है। इसको प्राकृत रूप क्रय-पणामी होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२६ से 'ऋ' के स्थान पर 'अ' की प्राप्ति; १-१७७ से 'सु' का लोप; १-१६० से लोप हुए 'तू' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्तिः २०७६ से 'लू' का लो५ २०८६ से लोप हुए 'टू' के पश्चान शेष रहे हुए 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति और ३०० से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में प्राप्तांग 'कय-पणाम में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतिीय प्राप्तस्य प्रत्यय 'सिस' के स्थान पर प्राकृत में 'डो = श्री प्रत्यय की संप्राप्ति होकर कय-प्रणामी रूप सिद्ध हो जाता है । ३०१०५ ॥
人
F-.