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द्वितीय रूप ( अद: ) अमु' में 'अ' अंग की प्राप्ति उपरोक्त पुल्लिंग रूप में वर्णित विधिअनुसार और तत्पश्चात सूत्र संख्या ३२५ से प्रथमा विभक्ति के एकत्रचत में नपुंसक लिंग में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'मू' प्रत्यय की प्राप्ति एवं १-२३ से प्राप्त प्रत्यय 'ए' के स्थान पर अनुस्वार को प्राप्ति होकर द्वितीय
है।
* प्राकृत व्याकरण *
'वर्ण' रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-१७२ में की गई है।
'अह' पुल्लिंग रूप की सिद्धि इसी सूत्र में उपर की गई है।
'मोह' संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप मोडो होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतोय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि=स' के स्थान पर प्राकृत में 'डोश्री प्रत्यय की प्राप्ति होकर मोही रूप सिद्ध हो जाता है।
पर - गुण - लघ्वयाते संस्कृत क्रियापद रूप है इसका प्राकृत रूप पर-गुण- लहु-याइ होता है। इसमें सूत्र - संख्या १-९८७ से ( लघु + अयांत में स्थित ) घ के स्थान पर ही प्राप्ति और ३- १३६ से वर्तमान काल के प्रथम पुरुष के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य आत्मनेपदीय प्रत्यय 'ते' के स्थान पर प्राकृत में 'इ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पर गया हुअयाइ रूप सिद्ध हो जाता है।
'अह' पुल्लिंग रूप की सिद्धि इसी सूत्र में ऊपर की गई है।
अस्मान् संस्कृत द्वितीया बहुवचनान्त ( त्रिलिंगात्मक ) सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'णे' (भो) होता हैं । इसमें सूत्र संख्या ३०१०८ से मूल संस्कृत शब्द 'श्रस्मद्' के द्वितीया बहुवचन बोधक रूप 'अस्मान' के स्थान पर प्राकृत में '' रूप की आदेश प्राप्ति होकर 'णे' रूप सिद्ध हो जाता है ।
हृदथेण संस्कृत तृतीया एकवचनान्तु संज्ञा रूप है। इसका प्राकृत रूप हिश्रण होता है। इसमें सूत्र-संख्या १-१२८ से 'ऋ' के स्थान 'इ' की प्रति १-१७७ से 'द्र' और 'य' का लोप; ३-१४ से प्राप्तांग 'ह्रदय से हिअअ' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर आगे तृतीया विभक्ति के एकवचन बोधक अत्यय का सद्भाव होने से' 'ए' की प्राप्ति और ३-६ से प्राप्तांग 'हिश्रए' में तृतीया विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राव्य प्रत्यय 'टा के स्थान पर प्राकृत में 'गु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर हिअएण रूप सिद्ध हो जाता है ।
'' किया रूप की सिद्धि सूत्र संख्या २-१९८ में की गई है।
मारुत-तनयः संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त पुल्लिंग संज्ञा रूप हैं। इसका प्राकृत रूप माय-ओ होता है । इसमें सूत्र संख्या १-१७७ से प्रथम 'तू' का लोपः १-१६० ले लोप हुये 'स्' के पश्चात् शेष रहे
हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति २२ लोप और ३-२ से प्रथमा विभक्ति के
से 'न' के स्थान पर 'ए' की प्राप्तिः १-१७७ से 'य्' का एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में प्राप्तांग 'मय-समय' में