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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित *
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राजभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन सर है। इसके प्राकृत रूप राईहि, राईहिन्तो और राई सुन्ती होते है। इनमें सूत्र-संख्या १.११ से मूल संस्कृत शब्द 'राजन' में स्थित अन्त्य हलन्त म्यनन 'न' का लोप; ३-२४ से 'ज' के स्थान पर-(वैकल्पिक रूप से)-गोर्घ 'ई' की पति और ३-६ से पंचमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'भ्यत' के स्थान पर प्राकृत में कम से हि-हिन्तो-सुन्तो 'प्रत्ययों की प्राप्ति होकर राईहि, राईहिन्तो और राईसुन्तो रूप सिद्ध हो जाते हैं।
राईण रूप की सिदि सूत्र-संख्या ३-५३ में को गई है।
राजस संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है । इसका प्राकृत रूप राईसु होता है । इसमें 'राई' अंग की प्राप्ति इसी सूत्र में वर्णित उपरोक्त विधि अनुसार तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ४-४४८ से मातमी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सु' की प्राकृत में भी प्राप्ति होकर राईम रूप सिद्ध हो जाता है। ३-५४ ॥
आजस्य टा-सि-हुस्सु सणाणोष्वण ॥ ३-५५ ॥ राजन् शब्द संबन्धिन श्राज इत्यवयवस्य टाङसिङस्सु रणा णो इत्यादेशापन्नेषु परेषु अण वा भवति ।। रगणा राइणा कयं । गणो राइणो आगो धणं वा । टा सि इस्स्विति किम् । रायाणो चिट्ठन्ति पंच्छ वा ॥ सणाणोध्विति किम् । रापण । रायाप्रो । रायस्स ।।
अर्थ:-संस्कृत शब्न 'राजन' के प्राकृत रूपान्तर में तृतीया विभक्ति के एकवचनीय संस्कृत प्रत्यय 'दा' के स्थान पर सूत्र-संख्या ३-५१ से प्राप्तव्य 'जा' प्रत्यय परे रहने पर तथा पंचमा विभक्ति के एकवचनीय संस्कृत-प्रत्यय कमि ८ अस्' और षष्ठी-विभक्ति के एकवचनीय संस्कृत-प्रत्यय अम-अस् के स्थान पर प्राकृत में सूत्र-संख्या ३-५० से प्राप्तव्य 'गो' प्रत्यय पर रहने पर एवं सूत्र-संख्या १-११ से 'राजन' के अन्त्य 'न' का लोप हो जाने पर शेष रहे हुए हुए 'राज' के अन्त्य अवयव रूप 'प्राज' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से 'अण' आदेश की प्राप्ति हुश्रा करती है। राज्ञा कृतम्ररणा कर्य अथवा राणा कयं अर्थात राजा से किया गया है। राज्ञः पागतः रगणो श्रागो अथवा राणो आगत्रो अर्थात राजा से पाया हआ। षष्ठी विभक्ति के एकवचन का उदाहरण इस प्रकार है:राः पनम् एणो धणं अथवा राइण वर्ष अर्थात् राजा का धन (है)। यो 'अण' श्रादेश-प्राप्ति की वैकल्पिक स्थिति समझ लेनी चाहिये।
मा-मूल सूत्र में 'टा-मि-स' का उल्लेख क्यों किया गया है ?