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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित かやるのがややかかなかなかいなかわからないのかゆかやかやかやかやかやかやかやかやで
कतरे संस्कृत प्रश्रमा बटुवचनान्त सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप कयरे होता है। इसमें सत्र संख्या १.१७७ से 'त' का लोपः १-१८० से लोप हुए त्' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'ब' की प्राप्ति और ३ ५८ से प्राप्तांग 'कयर' में प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकत में 'हे' प्रत्यय की प्राप्ति होकर कयरे रूप सिद्ध हो जाता है ।
इतरे संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृत रूप इयरे होता है। इसमें सत्र-संख्या १.२७७ से '' का लोप; १-१० से लोप हुए 'त' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर - 'य' को प्राप्ति और ३.५८ से प्राप्तांग 'इयर' में पथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय जस् के स्थान पर प्राकृत में 'डे-' प्रत्यय की प्राप्ति होकर जयरे रूप सिद्ध हो जाता है।
'एए' रूप की सिद्धि सत्र संख्या ४ में की गई है।
सर्वाः संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त त्रीलिंगात्मक सर्वनाम का रूप है । इसका प्राकृत रूप मन्त्राओ होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-६ से मूल मस्कृत शब्द 'सर्व' में स्थित 'र' का लोप; २.८८ से लोप हुए 'र' के पश्चात रहे छुए 'व' को द्वित्व 'च' की प्राप्ति; ३-३२ से और ४-४५८ के निर्देश से पुल्लिगस्व से स्त्रीलिंगत्व, के निर्माणार्थ प्राप्तांग 'सव' में 'या' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में सस्कृतीय प्रत्यय जप्त' के स्थान पर प्राकृल में 'यो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सम्मान रूप सिद्ध हो जाता है ।
अयः संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त रूप है। इसका प्राकृत रूप रिद्धीयो होता है सरें सत्र-संख्या १-१४ से मूल संस्कृत शब्द 'ऋद्धि' में स्थित 'ऋ' के स्थान पर 'रि' की प्राप्ति और ३-२७ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संकृतीय प्राप्तध्य प्रत्यय 'जस' के स्थान पर अन्त्य हस्व स्वर 'इ' को दाघ र 'ई' की प्राप्ति कराते हुए 'श्री' प्रत्यय की प्राप्ति होकर रिजीओ रूप सिद्ध हो जाता है ।
- सर्वस्य संस्कृत षष्ठी-एकवचनान्त सर्वनाम का रूप है । इसका प्राकृत रूप सबस्स होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-७६ से 'र' का लोप; २८६ से लोप हुए 'र' के पश्चात् बहे हुए 'अ' को द्वित्व 'व' की प्राप्ति और ३-१० से पक्ष विमक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'रुस - अस्' के स्थान पा प्राकृत में संयुक्त 'रस' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सवरस रूप सिद्ध हो जाता है । ३.२८ ।।
: स्ति-म्मि-स्थाः ॥ ३-५६ सदिरकारात् परस्य : स्थाने रिंस म्मि स्थ एते मादेशा भवन्ति ।। सञ्चस्मि । सबम्मि । सव्वस्थ ॥ अनस्सि । अनम्मि । अभस्थ ॥ एवं सर्वत्र ।। अत इत्येव । अमुम्मि ॥