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* प्राकृत व्याकरण *
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क्रम से अस्तित्व स्वीकार करना चाहिये । हम से बाहरण इस प्रकार है:- :- कस्याः (३-६४ के विधान से) फिरमा और कीसे एवं (३-२६ के विधान से ) पक्षान्तर में कीम, कीचा, कोइ और कीए । यस्याः = जिस्मा और जीसे; पक्षान्तर में जीअ, जीओ, जीइ और जीए। तस्या: =तिस्पा और तीसें; पक्षान्तर में ती, ती, तीइ और तीए ।
कस्याः संस्कृत षष्ठो एकवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप किस्सा. कोसे, की, की, कोइ और कीए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम' के स्थान पर प्राकृत में 'क' अंग की प्राप्ति ३-३२ से 'क' में पुल्लिंग से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'की' प्रत्यय की वैकल्पिक रूप में प्राप्ति ३-६४ से 'की' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'स्=अस् के स्थान पर ( प्राकृत में) 'स्सा' प्रत्यय की प्राप्ति और १८४ से प्राप्त प्रत्यय 'Far' संयोगात्मक होने से अंग रूप 'की' में स्थित दीर्घश्वर 'ई' के स्थान पर हस् स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप किस्सा सिद्ध हो जाते हैं ।
द्वितीय-रूप- (कस्याः) = कीसे में 'की' अंग की प्राप्ति का विधान उपरोक्त रीति से एवं तत्पश्चात सूत्र संख्या ३-६४ से प्राप्तोग 'की' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतिीय प्रत्यय '= अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'से' प्रत्यय की काप्ति होकर द्वितीय रूप कीसे सिद्ध हो जाता है ।
तृतीय रूप से खट्टे रूप तक ( कश्या: = ) कीश्र, कीथा, कोई और कीए में 'की' अंग की प्रमि का विधान उपरोक्त रीति से एवं तखात् सूत्र संख्या ३ २६ से प्राप्तांग 'की' में षष्ठी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'ङ = अस' के स्थान पर प्राकृत में क्रम से 'अ आ इ ए प्रत्ययों की प्राप्ति होकर कम से कीअ, कीआ, की और कीए रूप सिद्ध हो जाते हैं । यस्याः संस्कृत षष्ठी एकवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जिस्मा, जीसे, जंश्र, जीश्रा, जीइ और जीए होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२४५ से मूल संस्कृत शब्द 'यद्' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति; १-११ से अन्य हलन्त व्यञ्जन 'इ' का लोप; ३-३२ से प्राप्तांग 'ज' में पुल्लिंग से स्त्रीलिंगत्व के निर्माण हेतु 'डोई' प्रत्यय की प्राप्तिः ३-६४ से प्राप्तांग 'जा' में षष्ठी विभक्ति के एकत्रचन में संस्कृतोय प्रत्यय 'इस अस्' के स्थान पर प्राकृत में 'स्वा' प्रत्यय की प्राप्ति और १-८४ से प्राप्त प्रत्यय 'स्सा' संयोगात्मक होने से अंग रूप 'जी' में स्थित दार्धस्वर 'ई' के स्थान पर हस्व स्वर 'इ' की प्राप्ति होकर प्रथम रूप जिस्सा सिद्ध हो जाता है ।
द्वितीय रूप (यस्या:= ) जी से में 'जी' अंग की प्राप्ति का विधान उपरोक रीति से एवं तत्पश्चात् सूत्र-संख्या ३-६४ से प्राप्तांग 'जी' में पष्ठो विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'इस अस् स्थान पर प्राकृत में 'से' प्रत्यय की प्ति होकर द्वितीय रूप जीसे सिद्ध हो जाता है।
तृतीय रूप से रूप तक - (यस्याः = ) जीम, जीश्रा, जीई और जीए 'जी' श्रंग की प्राप्ति का विवान टपरीत रीति से एवं तत्पश्चात सूत्र - संख्या ३ - २६ से प्राप्तांग 'जी' में षष्ठी विभक्ति के