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*प्राकृत व्याकरण * +00++roposal kondookatarans000000000000000000000+konths0000000000000
अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम नपुंसकलिंग शब्द 'किम्' के प्राकृत रूपान्तर में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'मि' प्रत्यय आम होने पर और द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम्' प्रत्यय प्राप्त होने पर मूल शब्द 'किम' और उक्त प्रत्यय. इन दोनों के स्थान पर नित्यमेव 'किं' आदेश हर की प्राप्ति होती है। तात्पर्य यह है कि 'किम् + मि' का प्राकृत रूपान्तर "f' होता है । और 'किम + अम्' का प्राकृत सनरी 'कि' शेतः है असा द्वितीया सन विभक्तियों के एकवचन में समान रूप से ही प्रत्यय सहित मूल शब्द 'किम' के स्थान पर 'कि' रूप की प्राकृत में नित्यमेव आदेश-प्रानि होती है । जैसे:किम कुलम् तब-किं फुल तुह अर्थात तुम्हारा क्या कुल है ? (तुम कौन से कुल में उत्पन्न हुप हो ? ) यह उदाहरण प्रथमा एकवचन वाला है। किम किम् ते प्रति भाति = f: किं ते पडिहाइ ? तुम्हें क्या क्या मालूम होता है ? यह उदाहरण द्वितीया के एकवचन का है।
किम् संस्कृत प्रथमा एकवचनान्त नपुंसक लिंग सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप 'कि' होता है। इसमें सूत्र संख्या ३-८० से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्द 'किम्' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में 'सि' प्रत्यय की संयोजना होने पर शरद सहेत प्रत्यय के स्थान पर f' रूप की नित्यमेव प्रादेश प्राप्ति होकर किं रुप सिद्ध हो जाता है।
'फुलं' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १.३३ में की गई है।
'तव' संस्कृत षष्ठो एकवचनान्त पुल्लिग मनाम रूप है । इसका प्राकृत रूप 'तु' होता है। इसमें सत्र-संख्या ३-6 से मूल संस्कृत शब्द 'युष्मद् में संयोजित षष्ठी एकवचन बाधक संस्कृतीय प्रत्यय 'हस-प्रस' के कारण से प्राप्त रूप 'तव' के स्थान पर प्राकृत में 'तुह' रूप की आदेश प्राप्ति होकर 'तुह' रूप सिद्ध हो जाता है।
___किम् संस्कृत द्वितीया एकवचनान्त नपुसक जिंग सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप 'कि' होता है । इसमें सूत्र-सख्या ३-८० से मूल संस्कृत सर्वनाम शब्न 'किम्' में द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'अम्' प्रत्यय का संयोजना होने पर शब्द सहित प्रत्यय के स्थान पर 'कि' रूप को नित्यमेव आदेश प्राप्ति होकर किं रूप सिद्ध हो जाता है।
___'ते संस्कृत चतुर्थी एकवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राक्त प भी 'ते' ही होता है। इसमें सूत्र-संख्या ३.६६ से मूल सं कृत शब्द 'युष्मद् में संयोजित चतुर्थी एकवचन बोधक संस्कृतीय प्रत्यय '' के कारण से मंकृतीय श्रादेश प्राप्त रूप 'ते' के स्थान पर प्राक्त में भी रूप की
आदेश प्राप्ति और ३-१३१ चतुर्थी-षष्ठी की एक रूपता प्राप्त होकर प्राकृतीय रूप 'ते' सिद्ध हो हो जाता है।
प्रतिभाति संस्कृत कियापर रूप है। इसका प्राकृत रूप पडिहाइ होता है। इसमें सूत्र संख्या २.5 से 'र' का लोप; १-२०६ से प्रथम 'त' के स्थान पर 'इ' को प्राप्तिः १-१८७ से भ' के मान पर