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* प्राकृत व्याकरण 0000000000++++
'ते' (सर्वनाम ) रूप की सिद्धि सूत्र संख्या १-२६९ में की गई है । 'सहिअर्हि रूप की सिद्धि मूत्र-संख्या १-२६९ में की गई है। 'पति' रूप की सिद्धि सत्र - संख्या १-२६९ में की गई है।
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से ह ॥ ३-६६ ॥
किं तद्भयः परस्य उसे: स्थाने म्हा इत्यादेशो वा भवति ॥ कम्हा | जम्हा । तम्हा | पते । काओ । जाओ । ताओ ।
अर्थ:-संस्कृत सर्वनाम 'किमन्यद्वद्' के प्राकृत रूपान्तर 'क जन्त' में पचमी विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय इति अम्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'महा' प्रदेश की प्राप्ति हुआ करती है । जैसे:सः कस्मात् = कम्हा; यस्मात् जम्हा और तस्मात् तम्हा | वैकपिक पक्ष का विधान होने से पक्षान्तर में सूत्र संख्या ३८ के विधान से उपरोक्त 'क-ज-त' सर्वनामों में 'तो; दो = श्रो; दु = उ; हि, हिन्दी और लुक्' प्रत्ययों की भी प्राप्तिक्रम है । जैसे:- कस्मात् काश्री, (कुसो, काउ, काहि, (जसी, जाब, जाहि, जाहिन्तो और जा ) एवं तस्मात
हुआ करती काहिन्ती और का आदि) । यस्मात् =जाओ, ताओ. (तचो, ताउ, ताहि, ताहिन्तो और ता ) !
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कस्मात् संस्कृत पञ्चमी एक वचनान्त पुल्लिंग सर्वनाम रूप है। इसके प्राकृत रूप कम्हा श्रीर काय होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या ३.७९ से मूल संस्कृत शब्द 'किम' के स्थान पर 'क' रूप की देश-प्राप्ति और ३-६६ से प्राप्तांग 'क' में पञ्चमी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतिीय प्रत्यय 'इसि= अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'म्हा' प्रत्यय की प्रदेश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप कन्हा सिद्ध हो जाता है ।
द्वितीय रूप- ( कस्मात् = ) कात्रो में 'क' अंग की प्राप्ति उपरोक्त सांधनिका के अनुसार; तपश्चात् सूत्र संख्या २-१२ से प्रयोग 'क' में स्थित अन्य ह्रस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'आगे पञ्चमां विभक्ति एकवचन- चोक प्रत्यय 'ओ' का सदभाव होने से' दीर्घ 'या' की प्राप्ति और ३० से प्राप्तांग 'का' में विभक्ति के एक वचन में संस्कृताय प्रत्यय 'उसिस के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर द्वितीय रूप कभी भी सिद्ध हो जाता है।
यस्मात् संस्कृत पञ्चमी एवं वचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप जम्हा और जाओ होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र संख्या १-२४५ ले मूल संस्कृत शब्द 'यद्' में स्थित 'य' के स्थान पर 'ज' की 'प्रामि १-१२ से अन्त्य हलन्त व्यञ्चन 'दु का लोप और ३-३६ से प्राप्तांग 'ज' में पञ्चमी विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'इसि = अस्' के स्थान पर प्राकृत में वैकल्पिक रूप से 'हा' प्रत्यय की प्रदेश-प्राप्ति होकर प्रथम रूप जम्हा सिद्ध हो जाता है ।
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