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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित Presseswwwsrorseeneterroriterternortssorrorrotransornerwssnessson
तेषाम् संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिंग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकत रूप तेसि और ताण होते हैं। इनमें से प्रथम स त्र २.६१ मूस कृत शब्द 'तद्' में स्थित अन्त्य हलन्त ज्यञ्जन 'द' का लोप और ३-६१ से प्राप्तांग 'a' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'आम्' के स्थान पर प्राकत में 'डेसि' प्रत्यय की प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय 'डेसिं' में स्थित 'ड' इत्संज्ञक होने से 'त' में स्थित अन्त्य स्वर 'श्र' की इसंज्ञा होकर इस 'अ' का लोप एवं हलन्त 'न' में उपरोक्त 'एसिं' प्रत्यय की संयोजना होकर प्रथम रूप तेसि सिद्ध हो जाता है।
ताण की सिद्धि सूत्र-संख्या -32 में की गई है ।
केशाम संस्कृत पष्ठी बहुवचनान्त पुल्लिग के सर्वनाम का रूप है। इसके प्राकृत रूप केमि और काय होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र संख्या ३.७१ से मुल संस्कृत शब्द 'किम' के स्थान पर भाकृत में 'क' अंग को प्राप्ति और ३.६१ से 'क' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'श्राम्' के स्थान पर प्राकृत में 'डेति' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डेसिं' में स्थित 'ड' इत्संज्ञक होने से 'क' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्संज्ञा होकर इस 'अ' का लोप एवं हलन्त 'क' में उपरोक्त 'एसि' प्रत्यय की संयोजना होकर प्रथम रूप केसि सिद्ध हो जाता है।
'शाण रूप की सिद्धि सूत्र संख्या 5-5 में की गई है।
सर्वासाम् संस्कृत षष्ठी बहुक्क्मान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है । इसका प्राकृत रूप सम्वेसि होता है। इसमें सत्र-संख्या २-४६ से मूल संस्कृत शब्द 'सर्व' में स्थित हलन्त 'र' का लोप; २-८८ से लोप हुए. 'र' के पश्चात् रहे हुए 'प' को द्वित्व '' की प्राप्ति; ३-३२ और २-४ के विधान से 'सव्व' में पुल्लिगत्व से स्त्रीलिंगत्व के निर्माणाथे 'आ' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-६१ से 'सव्वा' में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'श्राम्' के स्थान पर प्राकृत में 'डेसि प्रत्यय को प्राप्ति प्राप्त प्रत्यय 'सि' में स्थित 'इ' इत्संनाक होने से सन्या' में स्थित अन्त्य स्वर 'श्रा' की इत्संज्ञा होकर इस 'आ' को लोप एवं हलन्त 'सच' में 'उपरोक्त 'एसि' प्रत्यय की संयोजना होकर (पुल्लिग रूप के समान प्रतीत होने वाला यह स्त्रीलिंग रूप) सब्वेसि सिद्ध हो जाता है।
अन्यासाम संस्कृत षष्ठी बहुवचनान्त स्त्रीलिंग के सर्वनाम का रूप है । इसका प्राकृत रूप अन्नेमि होता है । इसमें सब-संख्या २.७८ से मूल संस्कृत शब्द 'अन्य' में स्थित 'य' का लोप; २.से लोप हुए थ' के पश्चात बहे हुए 'न' को द्वित्व 'न्न' की प्राप्ति ३-३२ और २-४ के विधान से 'अन्न' में पुल्लिगरव से स्त्रीलिंगत्व के निर्माणार्थ 'श्रा' प्रत्यय की प्राप्ति और ३-६१से 'अन्ना में षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'आम' के स्थान पर प्राकृत में 'डेसि' प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'लेसि' में स्थित 'छु'इसंझक होने से प्राप्तांग 'अन्ना' में स्थित अन्त्य म्वर 'आ' की इत्संझा होकर इस मा' का लोप एवं हलन्त 'धन्न्' में उपरोक्त 'सिं' प्रत्यय की संयोजना होकर (पुल्लिग रूप के समापन प्रतीत होने वाला यह स्त्रीलिंग रूप) अन्तर्सि सिद्ध हो जाता है ।