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*प्राकृत व्याकरण
प्रम:-'जस' ऐसा प्रत्ययात्मक उल्लेख करने की क्या आवश्यकता है ?
उत्तरः-अकारान्त सर्वनामों में केवल प्रथमा विभक्ति के बहु ववन में ही संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'जस्' के स्थान पर हो प्राकृत में 'डे' प्रत्यय की संयोजना होती है; अन्य किसी भी प्रत्यय के स्थान पर 'डे-ए' प्रत्यय को संयोजना नहीं होती है; इस विशेषता पूर्ण तात्पर्य को समझाने के लिये हो मूल-सूत्र में 'जस्' प्रत्यय का उल्लेख करना पड़ा है । जैसे:--सर्वस्य-सन्वस्स । इस उदाहरण में षष्ठी-विभक्ति के एक वचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'इस अस' के स्थान पर प्राकृत में (सत्र संख्या ३-१० के अनुसार 'स' प्रत्यय की प्राप्ति हुई है और 'जस' प्रत्यय का अभाव है। तदनुसार 'जस्' प्रत्यय की अभाव-स्थिति होने से तद्-स्थानीय 'डे = ऐ' आदेश-प्राप्त प्रत्यय का भी श्रमाव है । यो यह सिद्धान्तात्मक निष्कर्ष निकलता है कि केवल 'जस' प्रत्यय के स्थान पर ही प्राकट में 'डे - ए' प्रत्यय की प्रादेश प्राप्ति होती है। अन्यत्र नहीं । ऐसी भावनात्मक स्थिति को प्रकट करने के लिये ही मूल-सूत्र में 'जस्' प्रत्यय का उल्लेख करना प्रन्थकत्ता ने आवश्यक समझा है जो कि यूक्ति-संगत है एवं न्यायोचित है।
सर्वे संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्न सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत-रूप सव्वे होता है। इसमें सूत्र संख्या-२.५ से 'र' का लोप; २.से लोप हुए 'र' के पश्चात रहे हुए 'व' को द्वित्व 'श्व की प्राप्ति
और ३-१८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में ' = ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर सत्ये रूप सिद्ध हो जाता है।
अन्ये संस्कृत प्रश्रमा बहुवचनान्त सर्वनाम रूप है। इसका प्राकृत रूप अन्ने होता है। इसमें सूत्र संख्या २-७८ से 'य' का लोप; २.८९ से लोप हुए 'य' के पश्चात् रह हुए 'न' को विश्व 'न्न' की प्राप्ति
और ३-४ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में 'डे-ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अन्ने रूप सिद्ध हो जाता है।
'जे' रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या २२१७ में की गई है। 'ते' रूप की सिद्धि सत्र संख्या १-२६९ में की गई है।
'के संस्कृत प्रथमा बहुवचनान्त सर्वनाम का रूप है। इसका प्राकृन रूप 'के होता है । इसमें सत्र-संख्या ३-७१ से मूल संस्कृत शब्द 'किम्' के स्थान पर 'क' स्लप की प्राप्ति और ३.५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में -ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'के' रूप सिद्ध हो जाता है।
'एके' संस्कृत प्रथमा बहुवचनाम्त सर्वनाम रूप है । इसका प्राकृत रुप एक्के होता है। इसमें सूत्र-संख्या २-4 से 'क' को द्वित्व 'क' की प्राप्ति और ३.५८ से प्रथमा विभक्ति के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'जस' के स्थान पर प्राकृत में -ए' प्रत्यय की प्राप्ति होकर 'एके' रूप प्ति हो जाता है।