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*प्राकृत व्याकरण ++00000000000000+claimro0000000000.we.....0000046rrordotc00000000000000
आत्मनष्टो णिमा गइया ॥ ३-५७ ।। आत्मनः परस्याष्टायाः स्थाने मिश्रा णइबा इत्यादेशौं वा भवतः । अप्पणिया पाउसे उवगयम्मि । अपणिश्रा य विआड्डे खाणिया । अप्पणुइया । पक्ष । अप्पाणेण ॥
अर्थ:-संस्कृत शब्द 'प्रात्मम्' के प्राकृत रूपान्तर में तृतीया विभक्ति के एकवधान में संस्कृत्तीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'टाया' के स्थान पर वैकल्पिक रूप से एवं क्रम से "णि प्रा' और 'पइया' प्रत्ययों को (श्रादेश) प्राप्ति हुआ करती है । जैसे:-आत्मना प्राषि उपगतायाम-अप्परिणश्रा पाउसे उवायम्मिअर्थात वर्षा ऋतु के व्यतीन हो जाने पर अपने द्वारा । इस उदाहरण में तृतीया के एकवचन में 'आत्मन्' शब्द में 'दा' के स्थान पर 'णि प्रा' प्रत्यय की प्राप्ति प्रदर्शित की गई है।
दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:--प्रात्मना च वितर्दिः खानिता अर्थात् वेदिका अपनेद्वारा खुदवाई गई है। इस उदाहरण में भी तृतीया के एकया में 'मापन शक में पाय के या पर 'मिश्रा' प्रत्यय की संयोजना की गई है । 'णइया' प्रत्यय का उदाहरण:--प्रात्मना-अप्पणइयो अर्थात् आत्मा से । वैकल्पिक पक्ष होने से प्रात्मा अप्पाणण' रूप भी बनता है । यो 'प्रात्मता के तीन रूप इस सत्र में बतलाये गये हैं; जो कि क्रम से इस प्रकार हैं:-अप्पणिया, अप्पणहा और , अप्पाणेण अर्थात् श्रास्मा के द्वारा अथवा पारमा से; इत्यादि।
'अप्पणिआ रूप की सिद्धि मत्र संख्या ३.१४ में की गई है।
प्रादपि संस्कृत साम्यन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पास होता है । इसमें मन्त्र संख्या १.३१ से मूल संस्कृत शब्द 'प्राद' के स्त्रीनिंगत्व से प्राकृन में 'पुस्जिगत्व' का निर्धारण २.७६ से 'र' का लोप; १-१७६ से 'व' का लोप; ११३१ से लोप हुए 'ब' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर 'ऋ' के स्थान पर 'ज' की प्राप्ति: १-१६ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'ट् अथवा ' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति ३.६१ में प्राप्तांग 'पास' में सनी विभक्ति के कवचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'बि-इ' के स्थान पर हैं प्रत्यय की प्राप्ति; प्राप्त प्रत्यय 'डे' में इ' तसंज्ञक होने से 'पास' में स्थित अन्त्य स्वर 'अ' की इत्मज्ञा होकर लोप; तत्पश्चात प्राप्तांग हलन्त 'पास' में पूर्वोक्त ।' प्रत्यय की संयोजना होकर पाउसे रूप सिद्ध हो जाता है।
उपमसायाम् संस्कृत सप्तम्यन्त स्त्रीलिंगात्मक एकवचन का कार है। इसका प्राकृत रूप(प्रावट के प्राकृत में पुल्लिग हो जाने के कारण से एवं प्रावट के साथ इसका विशेषणात्मक संबंध होने के कारण से) उत्रगयम्मि होता है । इसमें सूद-संख्या १.२३१ से 'प' के स्थान पर 'व' की प्राप्ति १-९७७ से 'त' का लोपः ३-१८० से लोप हुर. 'त' के पश्चात शेष रहे हुए 'अ' के स्थान पर 'य' की प्राप्ति; और ३-११ से सप्तमो विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय वि-ई' के स्थान पर प्राकृत में 'म्मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर उक्मम्मि रूप सिद्ध हो जाता है।