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*प्राकृत व्याकरणा* +++on+++0000000000000000000000000000000000000000000000000000000000rnor.
द्वितीय रूप प्रावन् = ) गावा में सूत्र संख्या २-७६ से 'र' का लोपः १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न्' का लोप; ३.४६ से (तथा ३.५६ के निर्देश से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'गाय' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'मागे प्रथमा एकवचन (बोधक प्रत्यय) का सद्भाव होने से' 'आ' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ४-४४८ के अनुसार संस्कृतीय प्रत्यय fस =प्स' का प्राकृत में लोप हाकर द्वितीय रूप गाया मा सिद्ध हो जाता है।
पूषा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकुन रूप पूमाणो और पूसा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में सत्र संख्या १.२६० से मूल संस्कृत शब्द 'पूपन' में स्थित 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन' अवयव के स्थान पर 'प्राण' आदेश को प्राप्ति और ३.२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप- पूसाण' में प्रथमा विभक्ति के पकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-प्रो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप यूसाणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप (पूषन = ) पूसो में सत्र-संख्या १२६० से 'ष' के स्थान पर 'स' की प्राप्ति; १-११ से अन्य हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप; ३-४४ से (तथा ३-५६ के निर्देश से) प्राप्तांग अकारान्त रूप 'पूस' में स्थित अन्त्य '' के 'पागे प्रथमा एकवचन (बोधक प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'श्रा' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ४-४५८ के अनुसार संस्कृतीय प्रत्यय '
सिस्' का प्राकृत में लोप होकर द्वितीय रूप यूसा भी सिद्ध हो जाता है।
तक्षा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है । इसके प्राकृत रूप तववाणी और लक्खा होते हैं । इनमें से प्रथम रूप में सत्र-संख्या २.३ से मूल संस्कृत शब्द 'तक्षन्' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'ख' की प्राप्ति; २-.६ से प्राप्त 'न' को द्वित्व 'वस्त्र' की प्राप्ति; ६० से प्राप्त पूर्व 'ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'प्राण' आदेश की प्राप्ति
और ३.२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'तक्खाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में सस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप तक्खाणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(तक्षन = तक्षा%) तक्खा में सत्र संख्या २-३ से मूल संस्कृत शब्द 'तक्षन' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'ख' को प्राप्ति: २-२६ से प्राप्त 'ख' को द्वित्व 'ख' की प्राप्ति २.१८ से प्राप्त पूर्व ख' के स्थान पर 'क' की प्राप्सि; १-११ से अन्त्य हलन्त व्यसन 'न्' का लोप; ३-४६ से (तथा ३-५६ के निर्देश से) प्राप्तांग अकारान्त रूप 'तपख' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे प्रथमा एकवचन (बोधक प्रत्यय) का सद्भाव होने से 'आ' की प्राप्ति और १.१५ से प्रथमा विभक्ति के एकषचन में ४.४४ के अनुसार संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय 'सिम्स' का प्राकृत में लोप होकर द्वितीय रूप तक्खा भी सिब हो जाता है।