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* प्रियादय हिन्दी व्याख्या सहित
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प्राप्तव्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'हो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप बम्हाणी सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-'चहा' की सिद्धि सूत्र-संख्या २.७४ में की गई है।
अध्वा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप श्रद्धा और श्रद्धा होते है। इनमें से प्रथम रूप में से सूत्र-संख्या २-७६ से मूल संस्कृत शब्द "अश्वन' में स्थित '' का लोप, २.८६. से लोप हुए 'व्' के पश्चात शेष रहे. हुए 'ध' को द्वित्व 'ध' की प्राप्ति २-६० से प्राप्त हुए पूर्व 'ध' के स्थान पर 'द्' को प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर. 'श्राण' आदेश की प्राप्ति; और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप अद्धाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्राप्तन्य प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में '
होली' लय की प्राप्ति होकर प्रथम रूप अचाणो सिद्ध हो जाता है।
द्वितीय रूप-(अध्वन-अभ्वा- प्रद्धा में सूत्र-पंख्या २.७६ से 'व' का लोप, २-८८ से लोप हुए 'धू' के पश्चात शेष रहे हुए 'ध' को द्विश्व 'धध' की प्राप्ति २०६० से प्राप्त पूर्व 'धू के स्थान पर 'द' की प्राप्ति: १-११ से अन्त्य हलन्त व्यञ्जन 'न' का लोप; ३-४६ से (तथा ३.५६ के निर्देश से) प्राप्तांग अकारान्त रूप 'श्रद्ध' में स्थित अन्त्य '' के 'आगे प्रथमा-एकवचन बोधक प्रत्यय का सभाष होने से' 'या' की प्राप्ति और १-१५ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में ४-४४८ के अनुसार प्रत्यय 'सिम्स' का प्राकृत में लोप हो कर द्वितीय रूप अद्धा भी सिद्ध हो जाता है।
उक्षा संस्कृत प्रथमान्त एकवचत का रूप है । इसके प्राकृत रूप उच्छाणो और उबला होते है। इनमें से प्रथम रूप में सूत्र-संख्या ३-३ के अनुसार अथवा ३-१७ से मूल संस्कृत शब्द 'अक्षन्' में स्थित 'क्ष' के स्थान पर 'छ' की प्राप्ति; २-१ से प्राप्त 'छ' को द्वित्व 'छछ' की प्राप्ति २.६० से प्रारत पूर्व 'छ' के स्थान पर 'च्' को प्राप्ति; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'प्राण' आदेश की प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप 'उच्छाण' में प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृन में 'डो-ओ' प्रत्यय को प्राप्ति होकर प्रथम रूप उजाणी सिद्ध हो जाता है।
उच्छा रूप की सिद्धि सूत्र-संख्या १७ में की गई है।
यावा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसके प्राकृत रूप गात्राणो और गावा होते हैं। इनमें से प्रथम रूप में से सूत्र-संख्या २-७८ से मूल संस्कृत शब्द 'प्रावन' में स्थित 'र' का लोप; ३-५६ से अन्त्य 'अन्' अवयव के स्थान पर 'प्राण' श्रादेश प्राप्ति और ३-२ से प्राप्तांग अकारान्त रूप गावाण में प्रथमा-विभक्ति के एकवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'डो-ओ' प्रत्यय की प्राप्ति होकर प्रथम-रूप गावाणो सिर हो जाता है।