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*पोइथ हिन्दी व्याख्या सहित * worrimestoriesmarrioritrakoorimrosorrowrimetestostosterometrin स्थान पर 'प्राण' आदेश की प्राप्ति होकर ये शब्द अकारान्त हो जाते हैं और इनकी विभक्ति (बोधक) कार्य को प्रवृत्ति जिण' अथवा 'वच्छ' अथवा 'अप्पाण' के अनुसार होती है। उपरोक्त सिद्धान्त की पुष्टि के लिये दो उदाहरण और दिये जाते हैं:--
सुकर्मणः पश्य -- सुक्रम्माण पेच्छ अर्थात् अच्छे कार्यों को देखो । इस उदाहरण में 'सुफर्मन' शब्द 'अन' 'अन्त वाला है और इसके अन' अवयव के स्थान पर 'पाण' प्रादेश की प्राप्ति करके प्राकृत रूपान्तर 'सुकम्माण" रूप का निर्माण करके द्वितीया विभाक के बहुवचन में 'अच्छे' के समान सत्र संख्या ३-४ और ३-१५ के विधान से 'सुकम्माणे' रूप का निर्धारण किया गया है, जो कि स्पष्टता भकागन्त-स्थिति का सूचक है।
दूसरा उदाहरण इस प्रकार है:
पश्यति कथं स सुकमणः = निएइ कह सो सकम्माणे अर्थात वह अच्छे कार्यों को किस प्रकार देखता है ? इस उदाहरण में भी प्रथम उदाहरण के समान ही 'सुकमन' शब्द की स्थिति को द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त शब्द की स्थिति के समान ही समझ लेना चाहिये।
प्रश्न:--मूल सत्रों में सर्व प्रथम 'सुमि' अर्थात् 'पुल्लिग में ऐसा उल्लेख क्यों किया गया है?
उत्तर:--'अन' अन्त वाले शब्द पुल्लिम भी होते हैं और नपुसकलिंग भी होते है। तदनुसार इम 'अन्' अवयव के स्थान पर प्राकृत-रूपान्तर में केवल पुल्लिंग शब्दों में ही 'श्राएं भादेश प्राप्ति होती है; नपुंसकलिंग वाले शब्द चाहे 'अन,' अन्त वाले मलं हो हो; किन्तु जनमें 'अन्' अवयव के स्थान पर 'आण आदेश-प्राप्ति नहीं होती है; इस विशेष तात्पर्य को बताने के लिये तथा संपुष्ट करने के लिये हा मूल मूत्र में सर्व प्रश्रम 'सि' अर्थात् 'पुल्लिग मे' ऐसा शब्दोल्लेख करना पड़ा है। नएसक लिंगात्मक उदाहरण इस प्रकार है:-जैसे शर्मन. शब्द के प्रथमा विभक्ति के एकवचन में संस्कृत रूप 'शर्म, का प्राकृत रूपान्तर सम्म' होता है । सदनुसार यह प्रतिभासित होता है कि संस्कृत रूप 'शम का प्राकृत-रूपान्तर 'सम्माणो' नहीं होता है । अतएव 'पुसि शब्द का उल्लेख करना सर्वथा न्यायोचित एवं प्रसंगोचित है।
___ आत्मा संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है । इसका प्राकृत रूप अप्पाणा होता है। इसमें सत्र-संख्या-१-८४ से आदि 'आ' के स्थान पर '' की प्राप्ति; ३.५१ से संयुक्त व्यञ्जन 'स्म्' के स्थान पर प' आदेश की प्राप्ति; २.८८ से आदेश प्राप्त 'प' को द्वित्व 'प' की प्राप्ति३-५६ से मूल संस्कृत शब्द 'आत्मन्' में स्थित अन्त्य 'अन्' अत्रमय के स्थान पर-(जैकल्पिक रूप से)- आण' प्रादेश को मानि; यो 'पास्मन् के प्राकृत रूपान्तर में 'अप्पाण' अंग की प्राप्ति होकर तत्पश्चात सूत्र-संख्या ३-२ से प्रथमा विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिग में संस्कृतीव प्राप्तव्य प्रस्थय 'सि' के स्थान पर प्राकृत में 'ओ' प्रत्यय की प्राप्ति झेकर 'अप्पापी रूप सिद्ध हो जाता है।