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आत्मभ्यः संस्कृत पञ्चम्यन्त बहुवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पाणासुन्तो होता है । इसमें 'आत्मन्पाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-१३ से प्राप्तांग 'अयाण' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'श्रागे पंचमी बहुवचन-बोषक-प्रत्यय का सदुभाव होने से ' 'आ' की प्राप्ति और ३.६ से पचमी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतिीय प्राप्तव्य प्रत्यय ध्य' के स्थान पर प्राकृत में 'सुन्तो' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अव्वाणासुन्ती रूप सिद्ध हो जाता है।
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* प्रियोदय हिन्दी व्याख्या सहित
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आत्मनः संस्कृत षष्ठयन्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप अध्यास होता हैं। इसमें 'आत्मन' = श्रध्वाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि के अनुसार तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-१० से पी विभक्त के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृती प्राप्तव्य प्रत्यय 'उस' के स्थान पर भात ने संयुक्त 'ए' की प्राप्तिकर अप्याणस्स कप सिद्ध हो जाता है । મ
आत्मनाम्, संस्कृत षष्ठयन्त बहुवचनरूप है। इसका प्राकृत रूप धप्पाणाय होता है। इसमें 'आत्मन् अप्पण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि के अनुसार; तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-१२ से मातंग' अध्यान' में स्थित अन्त्य 'अ' के स्थान पर 'आगे षष्ठी विभक्ति-बहुवचन बोधक प्रत्यय का सद्भाव होने से' 'आ' की प्राप्ति और ३-६ से षष्ठी विभक्ति के बहुवचन में प्रकाशन्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रत्यय 'आम' के स्थान पर प्राकृत में ण' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणाण रूप सिद्ध हो जाता है।
आत्माने संस्कृत सप्तम्यन्त एकवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप अप्पासम्म होता है। इसमें 'आत्मम= अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-११ से सप्तमी विभक्ति के एकवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतिीय प्रत्यय 'कि' के स्थान पर प्राकृत में संयुन्नत 'मि' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अध्याणम्मि रूप सिद्ध हो जाता है ।
आत्मसु संस्कृत सप्तम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप अध्यास होता है। इसमें 'श्रस्मिन् अप्पाण' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार तत्पश्चात् सूत्र संख्या ३-१५ से प्राप्तांग 'अप्पा' में स्थित अन्त्य 'अ' के 'आगे सप्तमी विभक्ति के बहुत्रचन बोधक प्रत्यय का सदुभाव होने से' 'ए' की प्राप्ति और ४-४४५ से सप्तमी विभक्ति के बहुवचन में अकारान्त पुल्लिंग में संस्कृतीय प्रय प्रत्यय 'सु' के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर अप्पाणेषु रूप सिद्ध हो जाता है ।
आत्म-कृतम् संस्कृत-(आत्मना कृतम् का समाम अवस्था प्राप्त) विशेषणात्मक रूप हैं। इसका प्राकृत रूप प्राण कथं होता है। इससे 'अप्पा' अवयव रूप अंग को प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुमार और 'कथं' रूप उत्तरार्ध श्रवयव की साधनिका का सूत्र संख्या १-९२६ के अनुसार प्राप्त होकर अपाण कय रूप सिद्ध हो जाता है।