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पितृषु संस्कृत सप्रम्यन्त बहुवचन रूप है। इसका प्राकृत रूप पिऊस होता है। इसमें 'पिड' अंग की प्राप्ति उपरोक्त विधि अनुसार ३ १६ से प्राप्तांग 'पिउ' में स्थित ह्रस्व स्वर 'उ' के स्थान पर दीर्घ स्वर 'ऊ' की प्ति ४४४ सेप्मानित के बहुवचन में संस्कृतीय प्रत्यय 'सुप्सु' के समान ही प्राकृत में भी 'सु' प्रत्यय की प्राप्ति होकर पिक रूप सिद्ध हो जाता है ।
* प्राकृत व्याकरण *
fter संस्कृत प्रथमान्त एकवचन का रूप है। इसका प्राकृत रूप पिश्रा होता है। इसमें -- मूल शब्द 'पितृ' में स्थित 'a' का सूत्र संख्या १-१७७ से लोपः ३-४५ से लोप हुए 'त्' के पश्चात् शेष रहे हुए 'ऋ' के स्थान पर 'आ' की प्राप्ति और १-११ से प्रथमा विभक्ति के एकत्रचन में संस्कृतीय प्राप्तव्य प्रत्यय-'सि-स् का अकृत में लोप होकर पिआ रूप सिद्ध हो जाता है ।
पितरम् संस्कृत द्वितीयान्त एकवचन का रूप हैं । इसका प्राकृत रूप पिचरं होता है। इसमें-मूल शब्द 'पितृ' में स्थित त का सूत्र संख्या १-१७० से लोप; ३-४७ से लोप हुए 'त' के पश्चात् शेष रहे हुए स्वर ॠ' के स्थान पर 'अर' आदेश की प्राप्ति ३-५ से द्वितीया विभक्ति के एकवचन में 'म्' प्रत्यय की प्राप्ति और १- २३ प्राप्त प्रत्यय में 'म्' का अनुस्वार होकर पिअर रूप सिद्ध हो जाता है ।
पितरी संस्कृत प्रथमान्त-द्वितीयान्स द्विवचन का रूप हैं। इसका प्राकृत रूप पिचरा होता है। इसमें 'पिचर' चग की प्राप्ति उपरोक्त साधनिकानुसार, ३ १३० सेद्विवचन के स्थान पर बहुवचन की प्राप्ति; ३-१२ से प्राप्तांग 'पिचर' में स्थित अन्त्य हस्व स्वर 'अ' के स्थान पर 'अ' प्राप्ति और ३-४ से प्रथमा द्वितीया विभक्ति के बहुवचन में संस्कृनीय प्रत्यय 'जस्' शस्' का प्राकृत में लोप होकर पिंजरा रूप सिद्ध हो जाता है | ॥ ३-४४ ॥ -
आरः स्यादौ ॥ ३-४५ ॥
स्यादौ परे ऋत और इत्यादेशो भवति || मचारो | भतारा । भचारं । मत्तारे । मन्तारंण । भत्तारेहिं ।। एवं ङस्यादिषूदाहार्यम् ॥ लुप्तस्याद्यपेक्षया । मत्तार - विहि ||
अर्थ:--- ऋकारान्त शब्दों में और ऋकारान्त विशेषणात्मक शब्दों में विभक्ति-बोधक 'सि' 'अम्' आदि प्रत्ययों की संयोजना होने पर इन शब्दों के अन्त्यस्थ 'ऋ' स्वर के स्थान पर 'आर' आदेश की प्राप्ति होती है तत्पश्चात इनकी विमक्ति-बोधक रूपावली अकारान्त शब्द के समान संचालित होती है । जैसे:- मर्ता मत्तारो::-मतरः यतारा भर्तारम्= भतार मन=मतारे भर्त्रान्मत्तारेण; भर्तृभिः = ताहि इसी प्रकार से पंचमी आदि शेष सभी विभक्तियों में स्वयमेव रूप निर्धारित कर लेना चाहिये; ऐसा आदेश वृति में दिया हुआ है। समास गत ऋकारान्त शब्द में भी यदि वह समा समय वाक्य के प्रारम्भ मे रहा हुआ तो 'ऋ' के स्थान पर 'बोर' आदेश की प्राप्ति हो जाती है एवं समाड़
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